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निश्चयनय के भेद-प्रभेद बनाते हैं, अतः इनका सर्वथा निषेध करने पर -
(अ) पर्याय का ही सर्वथा निषेध हो जाएगा, तब छह द्रव्यों को जाननेवाले का ही निषेध होने से विश्व के निषेध का प्रसंग आएगा।
(ब) उक्त तीनों नयों का निषेध करने पर एक परमशुद्धनिश्चयनय ही बचेगा, जिसके विषय में बन्ध और मोक्षपर्यायें हैं ही नहीं; अतः आत्मा को सर्वथा नित्य मानने का प्रसंग आएगा।
(स) परमशुद्धनिश्चयनय का विषय भी एकदेशशुद्धनिश्चयनय और साक्षात्शुद्धनिश्चयनय के द्वारा अनुभव में आता है, अतः इन दोनों का निषेध करने से परमशुद्धनिश्चयनय और उसके विषय का भी लोप हो जाएगा।
अतः सर्वनाश की इस आपत्ति से बचने के लिए उक्त तीन भेदों को यथायोग्य स्वीकार करना चाहिए।
परमशुद्धनिश्चयनय के निषेध करने का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि उसके अवलम्बन से ही अशुद्धता का नाश होकर शुद्धता की उत्पत्ति, वृद्धि और पूर्णता होती है।
प्रश्न 9 - यदि उक्त तीन भेदों का निषेध करने से सर्वनाश का प्रसंग आता है तो इनके कथंचित् निषेध करने की भी क्या आवश्यकता है?
उत्तर - कथंचित् निषेध करने से आशय, उनके विषय की सत्ता का निषेध करने से नहीं, अपितु अपने स्वभाव को उनसे भिन्न जानकर, उनसे दृष्टि हटाने से है। यदि उस नय के विषय का कथंचित् निषेध भी न होगा तो उसी पर दृष्टि (अपनापन) रहेगी, जिससे परमशुद्धनिश्चयनय का विषयभूत आत्मा, ज्ञेय-श्रद्धेय-ध्येय न हो पाएगा अर्थात् नयों को जानने का प्रयोजन ही सिद्ध न हो पाएगा, क्योंकि