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निश्चयनय के भेद-प्रभेद हुआ, एकदेशशुद्धनिश्चयनय का निषेध करता हुआ, उसे व्यवहार की कोटि में डाल देता है।
4. परमशुद्धनिश्चयनय का प्रयोजन - यद्यपि क्षायिक भाव, पूर्ण शुद्धपर्याय है, सादि-अनन्त है, साध्य है; तथापि वह भी क्षणवर्ती पर्याय होने से आलम्बन योग्य नहीं है, दृष्टि का विषय नहीं है। मैं तो अनादि-अनन्त शाश्वत त्रिकाली ध्रुव तत्त्व हूँ, मात्र पिण्ड हूँ, वृत्ति नहीं। इसप्रकार परमभावग्राही परमशुद्धनिश्चयनय उदित होकर साक्षात्शुद्धनिश्चयनय का भी निषेध करता हुआ, उसे व्यवहार की कोटि में डाल देता है।
परमशुद्धनिश्चयनय, स्वयं अपने से सम्बन्धित विकल्पों का निषेध करता हुआ उदित होता है, परन्तु उसका विषय ही श्रद्धेय-ज्ञेय
और ध्येय होने से उसका निषेध करनेवाला कोई नय नहीं है। उसका निषेध करने की आवश्यकता भी नहीं है। उसका निषेध तो हमारी मिथ्या मान्यता में अनादि से हो ही रहा है, अतः उसका निषेध क्यों किया जाए? उसमें सर्वस्व समर्पण करना है, उसका निषेध नहीं। __इसप्रकार निश्चयनय के चार भेद, दृष्टि को क्रमशः परपदार्थों, विकारी भावों, आंशिक और पूर्ण शुद्धपर्यायों से भिन्न अनादि-अनन्त कारण परमात्मा पर दृष्टि स्थापित कराते हैं और यही प्रत्येक आत्मार्थी का मूल प्रयोजन है।
प्रश्न 8 - निश्चयननय के इन चार भेदों को स्वीकार न किया जाए तो क्या हानि है?
उत्तर - प्रारम्भ के तीन भेदों का कथंचित् निषेध करके ही परमशुद्धनिश्चयनय तक पहुँचा जा सकेगा, परन्तु यदि इनका सर्वथा निषेध किया जाए अर्थात् इनकी विषय वस्तु को स्वीकार ही न किया