SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 142 नय-रहस्य कर्म या नोकर्म का दोष नहीं है - इस सत्य की सिद्धि, अशुद्धनिश्चयनय से होती है। 2. एकदेशशुद्धनिश्चयनय का प्रयोजन - यद्यपि जीव, स्वयं अपने स्वरूप को भूलकर रागादि भाव करता है, परन्तु वे दुःखरूप हैं, अशुचि हैं तथा जीव के स्वभाव से विपरीत हैं, इसलिए जीव से भिन्न हैं; अतः इन भावोंरूप परिणमित आत्मा के लक्ष्य से दुःखों से मुक्ति नहीं हो सकती। अपने स्वरूप को इनका कर्ता-भोक्ता मानना अज्ञान , है। जो राग की रचना करे, वह आत्मा का वीर्य नहीं हो सकता, आत्मा तो ज्ञानानन्द स्वभावी है; अतः अतीन्द्रिय ज्ञान और आनन्द ही उसका कार्य है। इसप्रकार राग से दृष्टि हटाकर, मोक्षमार्ग प्रगट करना, एकदेशशुद्धनिश्चयनय का प्रयोजन है; क्योंकि वह रागादि विकारी भावों का निषेध करके, आत्मा को सम्यग्दर्शनादि निर्मल पर्यायों का कर्ता कहकर, उन्हें प्रगट करने की प्रेरणा देता है। इसप्रकार एकदेशशुद्धनिश्चयनय, . अशुद्धनिश्चयनय का निषेध करके, उसे व्यवहार की कोटि में डाल देता है। 3. साक्षात्शुद्धनिश्चयनय का प्रयोजन - आंशिक शुद्धपर्यायें भी पूर्ण होने से आत्मा के पूर्ण स्वभाव का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं तथा उन पर दृष्टि करने से निर्मल पर्याय प्रगट नहीं होती, इसलिए वे भी हेय हैं। ये पर्यायें सादि-सान्त हैं, जबकि आत्मा, अनादि-अनन्त है। एकदेशशुद्धता साधन है, साध्य नहीं; जबकि मोक्ष, पूर्ण शुद्धपर्याय है, वही साध्य है और आत्मा के परिपूर्ण स्वभाव का प्रतिनिधित्व भी करता है, इसलिए मोक्ष, पूर्ण उपादेय है। - इसप्रकार साक्षात्शुद्धनिश्चयनय, अपूर्ण शुद्धपर्यायों से दृष्टि हटाकर, साधक को साधन में न अटकाकर, साध्य की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy