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________________ 141 निश्चयनय के भेद-प्रभेद मिथ्यात्व-रागादि अशुद्धपर्याय की भाँति अशुद्ध नहीं होता, उसींप्रकार उसके फलभूत केवलज्ञानरूप शुद्धपर्याय के समान शुद्ध भी नहीं होता; परन्तु वह शुद्ध और अशुद्ध दोनों पर्यायों से विलक्षण, शुद्धात्मा के अनुभवरूप निश्चय-रत्नत्रयात्मक, मोक्ष का कारणभूत, एकदेश प्रगट, एकदेश निरावरण - ऐसी तृतीय अवस्थारूप कहलाता है। - विशेष - बारहवें गुणस्थान में यद्यपि क्षायिकचारित्र प्रगट हो जाता है, जो कि साक्षात्शुद्धनिश्चयनय का विषय बनता है, परन्तु वहाँ ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय का उदय होने से केवलज्ञानरूप शुद्धपर्याय न होने से एकदेशशुद्धनिश्चयनय घटित किया गया है। प्रश्न 7 - निश्चयनय को एक सस्मान्यग्राही होने से अभेद तथा एक ही प्रकार का बताया था, फिर उसके चार भेद करने का क्या प्रयोजन है? उत्तर - परद्रव्यों तथा अपनी शुद्धाशुद्धपर्यायों से भी भिन्न निज शुद्धात्मस्वरूप का ज्ञान कराना ही इन चार भेदों का प्रयोजन है। यहाँ यह स्पष्ट किया जा रहा है कि इस प्रयोजन की सिद्धि में कौन-सा भेद किसप्रकार सहायक होता है। 1. अशुद्धनिश्चयनय का प्रयोजन - प्रत्येक द्रव्य, अपना कार्य करने में पूर्ण स्वतन्त्र है और प्रत्येक जीव भी अपना भला-बुरा करने में पूर्ण समर्थ है और स्वतन्त्र है, इसके लिए उसे परद्रव्य के सहयोग की आवश्यकता बिलकुल नहीं है - यह सिद्ध करना ही अशुद्धनिश्चयनय का प्रयोजन है; क्योंकि वह राग-द्वेष, सुख-दुःख आदि अप्रिय अवस्थाओं को भी अपनी स्वीकार करता है, उनके कर्तृत्व और भोक्तृत्व को भी स्वीकार करता है। जीव, स्वयं अपनी भूल से दुःखी है, उसमें किसी
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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