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________________ 136 नय-रहस्य स्वद्रव्य-सामान्य के सन्मुख होने से राग की उत्पत्ति भी नहीं होती। इस सन्दर्भ में प्रवचनसार, गाथा 189 के फुटनोट में प्रश्नोत्तर के रूप में दिया गया निम्नलिखित स्पष्टीकरण गम्भीरता से विचार करने योग्य है - . प्रश्न - द्रव्य-सामान्य का आलम्बन ही उपादेय है, फिर भी यहाँ राग-परिणाम की ग्रहण-त्यागरूप पर्यायों को स्वीकार करनेवाले निश्चयनय को उपादेय क्यों कहा है? उत्तर - राग-परिणाम का कर्ता भी आत्मा ही है और वीतरागपरिणाम का भी; अज्ञानदशा भी आत्मा स्वतन्त्रतया करता है और ज्ञानदशा भी - ऐसे यथार्थ ज्ञान के भीतर द्रव्य-सामान्य का ज्ञान गर्भितरूप से समा ही जाता है। यदि विशेष का भलीभाँति यथार्थ ज्ञान हो तो इन विशेषों को (उत्पन्न) करनेवाले सामान्य का ज्ञान होना ही चाहिए। द्रव्यसामान्य के ज्ञान के बिना पर्यायों का यथार्थ ज्ञान हो ही नहीं सकता; इसलिए उपर्युक्त निश्चयनय में द्रव्यसामान्य का ज्ञान गर्भितरूप से समा ही जाता है। जो जीव, ‘बन्धमार्गरूप पर्याय में तथा मोक्षमार्गरूप पर्याय में आत्मा, अकेला ही है', इसप्रकार यथार्थतया (द्रव्य-सामान्य की अपेक्षा सहित) जानता है, वह जीव परद्रव्य से संपृक्त नहीं होता और द्रव्य-सामान्य के भीतर पर्यायों को डुबाकर, एकरूप करके सुविशुद्ध होता है। इसप्रकार आलम्बन का अभिप्राय अपेक्षित होने से उपर्युक्त निश्चयनय को उपादेय कहा है। इसप्रकार प्रवचनसार में वर्णित शुद्धनय की विवक्षा का वर्णन किया गया। निश्चयनय के उक्त चार भेदों के बारे में और अधिक विचारविमर्श करने के लिए यहाँ कुछ प्रश्नोत्तर और दिये जा रहे हैं - ..
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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