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________________ 135. निश्चयनय के भेद-प्रभेद है - यह शुद्धद्रव्य का निरूपण स्वरूप निश्चयनय है और जो पुद्गल-परिणाम, आत्मा का कर्म है, वही पुण्य-पापरूप द्वैत है, . आत्मा पुद्गल-परिणाम का कर्ता है, उसका ग्रहण करनेवाला है । और छोड़नेवाला है - ऐसा अशुद्धद्रव्य के निरूपण स्वरूप : व्यवहारनय है। प्रश्न - इससे पहले रागादिरूप परिणमित आत्मा को अशुद्धनय का विषय कहा था, अब इसे शुद्धद्रव्य का निरूपण कहा जा रहा है? जिनागम में यह विरोध कैसे सम्भव है? उत्तर - अपेक्षा समझने से सब विरोध दूर हो जाता है। यहाँ परद्रव्यों से भिन्नता को ही शुद्धता कहा गया है। आत्मानुभूति के प्रयोजन से रागादिरहित स्वभाव को शुद्धता कहा जाता है। अतः दोनों कथनों की अपेक्षा समझना चाहिए। 189वीं गाथा के फुटनोट में इस प्रकरण का निम्नानुसार स्पष्टीकरण किया गया है - _ निश्चयनय मात्र स्वद्रव्य के परिणाम को बतलाता है, इसलिए उसे शुद्धद्रव्य का कथन करनेवाला कहा है और व्यवहारनय परद्रव्य के परिणाम को आत्मपरिणाम बतलाता है, इसलिए उसे अशुद्धद्रव्य का कथन करनेवाला कहा है। प्रश्न - व्यवहारनय को हेय और निश्चयनय को उपादेय माना गया है तो उपर्युक्त व्याख्या के अनुसार राग का ग्रहण-त्याग करनेवाला आत्मा उपादेय कैसे हो सकता है? ... उत्तर - निश्चयनय, व्यवहारनय का निषेधक होता है; अतः आत्मा, निश्चय से अपने परिणामों के ग्रहण-त्याग का कर्ता है। इस कथन से यह निश्चय करना चाहिए कि आत्मा, परद्रव्य के ग्रहण-त्याग का कर्ता नहीं है - ऐसा निर्णय होने पर दृष्टि, परद्रव्यों से हटकर
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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