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________________ नय - रहस्य 3. जीव के कर्मों के क्षयोपशम से होनेवाले जितने भाव हैं, वे जीव के भावप्राण होते हैं - ऐसा अशुद्धनिश्चयनय से जानना चाहिए। 134 पद्मप्रभमलधारिदेव, नियमसार, गाथा 8 की टीका 4. कम्मे णोकम्मम्हि य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं । जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव । ॥19॥ आचार्य कुन्दकुन्द, समयसार, गाथा 19 5. मैं रागी -द्वेषी हो लेता, जब परिणति होती है जड़ की । - बाबू जुगलकिशोरजी 'युगल' कृत देव - शास्त्र - गुरु पूजन इसप्रकार निश्चयनय के चार भेदों का स्वरूप तथा जिनागम में उपलब्ध उनके प्रयोगों की चर्चा की गई । यद्यपि यहाँ अधिकांश प्रयोगों का उल्लेख किया गया है, परन्तु कुछ अलग प्रकार के प्रयोग भी उपलब्ध हो सकते हैं। - प्रवचनसार, गाथा 188 - 189 में शुद्धनय का प्रयोग अलग ही दृष्टि से किया गया है। वहाँ आत्मा को निश्चयनय से रागादि के ग्रहण -त्याग का कर्ता कहा गया है। प्रवचनसार, गाथा 188 की अमृतचन्द्राचार्यकृत टीका में कहा है कि आत्मा, अकेला ही बन्ध है - ऐसा देखना चाहिए, क्योंकि निश्चयनय का विषय शुद्धद्रव्य है। यहाँ बन्धभावरूप परिणमित आत्मा को शुद्धनय का विषय कहा गया है। आत्मा किसका कर्ता है और उसका कर्म क्या है इस सन्दर्भ में गाथा 189 की टीका में कहा गया है राग - परिणाम ही आत्मा का कर्म है, यही पुण्य-पापरूप द्वैत है, आत्मा राग- परिणाम का ही कर्ता है, उसी का ग्रहण करनेवाला है और उसी का त्याग करनेवाला - --
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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