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________________ निश्चयनय के भेद-प्रभेद 133 अधूरा है या पूरा है - ऐसे विकल्प करता है। जरा सोचिए! चतुर्थ गुणस्थानवी ज्ञानी जीव जब निर्विकल्प स्वानुभूति में मग्न होता है, तब क्या उसे मैं चतुर्थ गुणस्थान में हूँ, अभी यह आनन्द अधूरा है, अभी तो तीन कषाय चौकड़ी का सद्भाव है....इत्यादि विकल्प होते होंगे? नहीं! वे तो पूर्ण-अपूर्ण के विकल्प रहित उस आनन्द के स्वाद में ही मग्न रहते हैं; अतः उन्हें भावना की अपेक्षा एकदेशशुद्धनिश्चयनय से अनन्तज्ञान-सुख आदि का कर्ता-भोक्ता कहने की विवक्षा समझी जाए तो यह कथन अनुचित नहीं लगेगा। (द) अशुद्धनिश्चयनय एवं उसके प्रयोग आत्मा की पर्याय में होनेवाले मतिज्ञानादि क्षयोपशमभाव अथवा । मिथ्यात्व तथा रागादि विकारीभावों को आत्मा के कहना, आत्मा को इन भावोंरूप परिणमित होता हुआ जानना, अशुद्धनिश्चयनय है। यह नय औदयिक और क्षायोपशमिक भावों को जीव के साथ अभेद बताता है तथा उनके साथ कर्ता-कर्म आदि सम्बन्ध भी बताता है। जिनागम में इस नय के प्रयोग भी सर्वत्र उपलब्ध हैं, जिनमें से कुछ प्रयोग यहाँ दिये जा रहे हैं - 1.सोपाधिक गुण-गुणी मे अभेद दर्शानेवाला अशुद्धनिश्चयनय है। जैसे, मतिज्ञानादि को जीव कहना। - आचार्य देवसेन, आलापपद्धति 2. अशुद्धनिश्चय का अर्थ कहा जाता है - कर्मोपाधि से उत्पन्न हुआ होने से अशुद्ध कहलाता है और आत्मा, उस समय तपे हुए लोहखण्ड के गोले के समान तन्मय होने से निश्चय कहलाता है। इसप्रकार अशुद्ध और निश्चय - इन दोनों का मिलाप करके अशुद्धनिश्चयनय कहा जाता है। - - ब्रह्मदेव सूरि, वृहद्रव्यसंग्रह, गाथा 8 की टीका
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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