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नय - रहस्य
5. अनुपम सुख तब विलसित होता, केवल - रवि जगमग करता है। दर्शन - बल पूर्ण प्रगट होता, यह ही अरहन्त अवस्था है ।। बाबू जुगलकिशोरजी 'युगल' कृत देव - शास्त्र - गुरु पूजन
(स) एकदेशशुद्धनिश्चयनय एवं उसके प्रयोग
आंशिक शुद्धपर्यायरूप परिणमित द्रव्य को पूर्ण शुद्धरूप देखनेवाला नय, एकदेशशुद्धनिश्चयनय है ।
वृहद्रव्यसंग्रह, गाथा 56 की टीका में परमध्यान में स्थित जीव को निश्चय मोक्षमार्गस्वरूप, परमात्मस्वरूप, परमजिनस्वरूप आदि विशेषणों से सम्बोधित किया गया है। यहाँ टीका का वह अंश दिया जा रहा है
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उस परमध्यान में स्थित जीव को जिस वीतराग परमानन्दरूप सुख का प्रतिभास होता है, वही निश्चय मोक्षमार्गस्वरूप है। वही शुद्धात्मस्वरूप है, वही परमात्मस्वरूप है, वही एकदेश प्रकटतारूप विवक्षित एकदेशशुद्धनिश्चयनय से स्वशुद्धात्म के संवेदन से उत्पन्न सुखामृतरूपी जल के सरोवर में रागादि मलरहित होने के कारण परमहंसस्वरूप है। इस एकदेशव्यक्तिरूप शुद्धनय के व्याख्यान को परमात्म ध्यानभावना की नाममाला में जहाँ यह कथन है, वहाँ परमात्म ध्यानभावना से परमब्रह्मस्वरूप, परमविष्णुस्वरूप, परमशिवस्वरूप, परमजिनस्वरूप आदि अनेक नाम गिनाए गए हैं, उन्हें परमात्मतत्त्व के ज्ञानियों द्वारा जानना चाहिए।
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आंशिक शुद्धपर्यायरूप परिणमित आत्मा अथवा आंशिक शुद्धपर्याय भी एकदेश शुद्धनय का विषय बनती है। स्वभाव - दृष्टि से अनन्त ज्ञान, सुख आदि शक्तियों का अखण्ड पिण्ड होने पर भी उसे एकदेशशुद्धपर्याय की मुख्यता से ज्ञानी, सम्यग्दृष्टि, श्रावक, साधु आदि भूमिकाओं की