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निश्चयनय के भेद - प्रभेद
• इसप्रकार आध्यात्मिक ग्रन्थों में तथा वर्तमान में रचित आध्यात्मिक साहित्य में परमशुद्धनिश्चयनय को बतानेवाले सैकड़ों प्रयोग उपलब्ध हैं। ध्यान रहे इन प्रयोगों में परमशुद्धनिश्चयनय को ही कहीं पर शुद्धनिश्चयनय, कहीं पर निश्चयनय, कहीं पर शुद्धनय कहा गया है, परन्तु उन सबको एकार्थवाचक ही समझना चाहिए । जिनागम में इसीप्रकार संक्षिप्त नाम लेने की पद्धति है। डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल द्वारा रचित प्रसिद्ध गीत 'मैं ज्ञानानन्द स्वभावी हूँ' में परमशुद्धनिश्चयनय के विषय का ही अस्ति और नास्ति से परिचय कराया गया है। (ब) शुद्धनिश्चयनय या साक्षात्शुद्धनिश्चयनय एवं उसके प्रयोग
आलापपद्धति में कहा है कि जो निरुपाधिक गुण - गुणी को अभेदरूप से विषय करता है, वह शुद्धनिश्चयनय है । जैसे, जीव को शुद्ध केवलज्ञानादिरूप कहना । यह नय आत्मा को क्षायिकभाव अर्थात् पूर्ण निर्मल पर्यायों से अभेद कहकर उन्हीं का कर्ता - भोक्ता भी कहता है। इस नय के प्रयोग इसप्रकार हैं कुछ
1. शुद्धनिश्चयनय से निरुपाधि स्फटिक मणि के समान आत्मा, समस्त रागादि - विकल्प की उपाधि से रहित है।
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- प्रवचनसार, तात्पर्यवृत्ति टीका का परिशिष्ट इस उदाहरण में भी शुद्धनय का नास्तिपरक कथन किया गया है। 2. शुद्धनिश्चयनय से केवलज्ञानादि शुद्धभाव जीव के स्वभाव कहे जाते हैं। पंचास्तिकाय, गाथा 61, जयसेनाचार्यकृत टीका
3. शुद्धनिश्चयनय से शुद्ध अखण्ड, केवलज्ञान और केवलदर्शन - ये दोनों जीव के लक्षण हैं। वृहद्रव्यसंग्रह, गाथा 6 की टीका 4. अहो निखरा कांचन चैतन्य, खिले सब आठों कमल पुनीत । अतीन्द्रिय सौख्य चिरन्तन भोग, करो तुम धवल महल के बीच ।।
- बाबू जुगलकिशोरजी 'युगल' कृत सिद्ध- पूजन की जयमाला