________________
128
नय-रहस्य उत्तर - पक्षातिक्रान्त अनुभूति नयपक्षों के विकल्पों के शमनपूर्वक उदित होती है, अतः वह स्व-सन्मुख भावश्रुतज्ञानरूप अवस्था है, परन्तु वह सम्यग्ज्ञानरूप होने से उसमें अन्य धर्मों का निषेध नहीं वर्तता, अन्यथा नयाभास होता, अनुभूति नहीं। ज्ञान का स्वभाव ही अपने विषय को अन्य विषयों से भिन्नतापूर्वक ग्रहण करना है - इस अपेक्षा निर्विकल्प अनुभूति भी सविकल्प अर्थात् साकाररूप है, निराकार नहीं। श्रद्धा का लक्षण प्रतीति मात्र है, अतः उसमें न तो मुख्य-गौण का विकल्प है और न अन्य विषयों से भिन्न जाननेरूप साकार उपयोगपना है; उसमें अहंपने की प्रतीति मात्र है। . परमशुद्धनिश्चयनय, त्रिकाली शुद्ध परम पारिणामिकभाव को विषय . बनाता हैं। जिनागम में उपलब्ध इस नय के कुछ प्रयोग इसप्रकार हैं -
. 1. शुद्धनिश्चयनय से सहज ज्ञानादि परमस्वभावभूत गुणों का आधारभूत होने से कारणशुद्धजीव है। .
.. - नियमसार, गाथा 9 की टीका 2. निश्चयनय से जीव सत्ता, चैतन्य व ज्ञानादि शुद्ध प्राणों से जीता है। - पंचास्तिकाय, गाथा 27 की जयसेनाचार्यकृत टीका ____3. ध्याता पुरुष यही भावना करता है कि मैं तो सकल निरावरण, अखण्ड, एक, प्रत्यक्ष प्रतिभासमय, अविनश्वर, शुद्ध पारिणामिक, परमभावलक्षणवाला निजपरमात्मद्रव्य ही हूँ, खण्डज्ञानरूप नहीं।
- समयसार की जयसेनाचार्यकृत टीका की मोक्षाधिकार की चूलिका ___4. सव्वे शुद्धा हु शुद्धणया - वृहद्रव्यसंग्रह, गाथा 13 5. जो एक शुद्ध विकारवर्जित, अचल परम पदार्थ है,
जो एक ज्ञायकभाव निर्मल, नित्य निज परमार्थ है। जिसके दरश व जानने का, नाम दर्शन-ज्ञान है, हो नमन उस परमार्थ को, जिसमें चरण ही ध्यान है।।
___ - मंगलाचरण, परमभावप्रकाशक नयचक्र