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निश्चयनय के भेद - प्रभेद
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उत्तर - रागादि को कर्मजन्य कहकर जीव के स्वभाव को रागादि से भिन्न कहा गया है। वस्तुतः यह जीव के स्वरूप का नास्ति से किया गया कथन है। अस्ति से कथन करने पर जीव एक अखण्ड शुद्ध चैतन्य घनपिंड है; उसमें राग है या नहीं है- ये दोनों अस्ति नास्ति के विकल्प हैं ? जीव तो चैतन्यमात्र है।
प्रश्न 2 यहाँ निश्चयनय के चारों भेदों को आत्मा पर घटित किया गया है। क्या पुद्गलादि अजीवद्रव्य भी नयों के विषय बनते हैं? उत्तर प्रत्येक वस्तु सामान्य- विशेषात्मक है, अतः वह प्रमाण और नय का विषय बनती है, लेकिन यहाँ अध्यात्म का प्रकरण है, अतः इन्हें मुख्यतया आत्मा पर घटित किया गया है, क्योंकि मोक्षमार्ग में आत्मज्ञान ही ज्ञान है । यद्यपि धर्मादि चार अरूपी द्रव्यों में अशुद्ध परिणमन नहीं होता, तथापि उनसे जीव का कोई सीधा प्रयोजन नहीं है अर्थात् वे जीव के सुख-दुःख में निमित्त नहीं बनते; अतः उनमें नय घटित करने का प्रयोग, जिनागम में नहीं किया गया, परन्तु पुद्गलों के साथ सम्बन्ध तो की चर्चा की गई है, जिसका विस्तृत विवेचन 'व्यवहारनय के भेद - प्रभेद' प्रकरण में किया जाएगा।
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प्रश्न 3 केवली भगवान की वाणी को आगम कहा गया है। फिर यहाँ अध्यात्म का प्रकरण है - ऐसा क्यों कहा गया ? अध्यात्म से आपका क्या आशय है ?
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उत्तर - जैसे, भारतवर्ष एक राष्ट्र है, फिर भी उसके एक प्रान्त का नाम महाराष्ट्र है; उसीप्रकार सम्पूर्ण जिनागम का सार, अध्यात्म अर्थात् (अधि = जानना, आत्म = स्वयं का ) आत्मा को जानना है । सिद्धचक्र विधान की सातवीं पूजन, छन्द 301 में कहा गया है . सम्पूरण श्रुतसार निजातम बोध लहानो।
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आत्मा को जानने का अर्थ, मात्र शब्दों से जानना नहीं,
अपितु