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________________ 124 नय-रहस्य नहीं - इस कथन में शुद्धनिश्चयनय शब्द का प्रयोग, शुद्धनिश्चयनय के विषयभूत क्षायिकभाव आदि पूर्ण शुद्ध भावों की अपेक्षा समझना चाहिए, क्योंकि वहाँ रागादि की उत्पत्ति ही नहीं है, अतः यह प्रश्न ही सम्भवित नहीं है कि उसके रागादि किस नय से हैं? इसीप्रकार इस प्रयोग को परमशुद्धनिश्चयनय के अर्थ में भी समझना चाहिए, क्योंकि परमशुद्धनिश्चयनय का विषयभूत आत्मा त्रिकाल शुद्ध है, उसमें अर्थात् त्रिकाली ध्रुव स्वभाव में भी रागादि उत्पन्न ही नहीं होते। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जिनागम में किये गये ऐसे विभिन्न नय-प्रयोगों को समझने के लिए नयों के भेद-प्रभेदों का स्वरूप एवं परिभाषा आदि को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए, तभी जिनागम के मर्म का भावभासन गहराई से हो सकेगा। रागादि को अशुद्धनिश्चयनय से जीवजन्य कहते हुए वृहद्रव्यसंग्रह में यह भी स्पष्ट किया गया है कि अशुद्धनिश्चयनय भी शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा व्यवहार ही है; अतः उसे उपचरित-सद्भूतव्यवहारनय से जीवकृत कहा गया है। न केवल अशुद्धनिश्चयनय, अपितु परमशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा साक्षात्शुद्धनिश्चयनय और एकदेशशुद्धनिश्चयनय भी व्यवहार ही कहे गये हैं। इसप्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि पंचाध्यायीकार का यह कथन । कि निश्चयनय एक ही है, उसके भेद हो ही नहीं सकते - इसी परमशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से किया गया है, अतः निश्चयनय एक ही है तथा उसके चार भेद हैं - इन दोनों विवक्षाओं को अपनी-अपनी अपेक्षा से सत्य समझना चाहिए। प्रश्न 1 - रागादि को अशुद्धनय से जीव का कहना तो ठीक है, परन्तु शुद्धनय से कर्मजन्य क्यों कहा है? क्या रागादिभाव शुद्धनय के विषय भी बनते हैं?
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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