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निश्चयनय के भेद-प्रभेद
123 लक्षण पारमार्थिक वीतरागसुख से प्रतिकूल सांसारिक सुख-दुःखों को अशुद्धनिश्चयनय से जीवजनित तथा शुद्धनिश्चयनय से कर्मजनित कहा है। जबकि वृहद्रव्यसंग्रह, गाथा 48 की टीका में रागादि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में निम्नलिखित चार अपेक्षाओं से कथन किया गया है - ___1. स्त्री और पुरुष के संयोग से उत्पन्न पुत्र के समान अथवा चूने और हल्दी के मिश्रण से उत्पन्न वर्ण-विशेष के समान, रागद्वेष आदि जीव और कर्म - इन दोनों के संयोगजनित हैं। ( - यह कथन अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय से किया गया है।)
2. रागादिभाव, अशुद्धनिश्चयनय से जीवजनित हैं।
3. रागादिभाव, विवक्षित एकदेशशुद्धनिश्चयनय से कर्मजनित हैं।
4. साक्षात्शुद्धनिश्चयनय से स्त्री और पुरुष के संयोगरहित पुत्र की भाँति तथा चूने और हल्दी के संयोगरहित वर्ण-विशेष की भाँति उनकी उत्पत्ति ही नहीं है।
उपर्युक्त दोनों ग्रन्थों में रागादि भावों को अशुद्धनिश्चयनय से तो जीव का ही कहा गया है, परन्तु कर्मजनित कहने को परमात्मप्रकाश में शुद्धनिश्चयनय का तथा वृहद्रव्यसंग्रह में एकदेशशुद्धनिश्चयनय का कथन बताया गया है।
इन दोनों कथनों में कोई विरोध नहीं है। परमात्मप्रकाश में प्रयुक्त शुद्धनिश्चयनय, निश्चयनय के मूल भेद के अर्थ में किया गया है, जिसमें उसके तीनों प्रभेद गर्भित हैं अर्थात् उन प्रभेदों में से यथायोग्य कोई एक प्रभेद लागू होगा; जबकि वृहद्रव्यसंग्रह में एकदेशशुद्धनिश्चयनय शब्द का प्रयोग करके स्पष्ट कर दिया है कि रागादि को कर्मजन्य कहने में शुद्धनय के किस भेद का प्रयोग किया जा रहा है।
इसीप्रकार साक्षात्शुद्धनिश्चयनय से रागादि की उत्पत्ति है ही