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________________ 121 निश्चयनय के भेद-प्रभेद है कि सामान्य-विशेषात्मक वस्तु का सामान्यांश, निश्चयनय का विषय है तथा जब सामान्य एक है, अभेद है तो उसे विषय बनानेवाला निश्चयनय भी एक ही हो सकता है और उसके भेद होना भी असम्भव है। यद्यपि सामान्य के स्वरूप में भी अनेक विशेषताएँ हैं, जिनके आधार पर उसे अभेद, निरुपाधि, द्रव्य, शक्ति, स्वभाव, शुद्धभाव, परमभाव, एक, परमार्थ, निश्चय, ध्रुव, त्रिकाली आदि अनेक नामों से कहा जाता है; तथापि वह है तो एक अखण्डरूप ही, अतः उसे जाननेवाला निश्चयनय भी एक अखण्ड अभेद होना चाहिए। सामान्य, शुद्धभावरूप या परमभावरूप अथवा परमार्थरूप है; अतः उसे विषय बनानेवाले निश्चयनय को भी शुद्धनय या परमशुद्धनय अथवा परमार्थनय भी कहा जाता है। यद्यपि विशेष अनेक प्रकार का होता है; उसे भेद, विकार, उपाधि, पर्याय आदि अनेक नामों से कहा जाता है; अतः विशेष को विषय बनानेवाला व्यवहारनय भी अनेक प्रकार का होना स्वाभाविक है, तथापि अनेक नामों वाला होने पर भी निश्चयनय तो सामान्यग्राही होने से एक ही होना चाहिए। इस सम्बन्ध में पंचाध्यायीकार लिखते हैं - - निश्चयनय का लक्षण 'न तथा' है, इसलिए वह एक ही है अनेक नहीं। ताम्ररूप उपाधि की निवृत्ति के कारण स्वर्णपना जिसप्रकार अन्य है, चाँदीरूप उपाधि की निवृत्ति के कारण वह वैसा ही अन्य है। इस कथन से उनका निराकरण हो गया, जो अपनी प्रज्ञा के अपराध से निश्चयनय को अनेक प्रकार का मानते हैं। निश्चय-व्यवहार के स्वरूप का विवेचन करते समय यह स्पष्ट किया जा चुका है कि निश्चयनय का लक्षण, 'न तथा' कहकर व्यवहारनय का निषेध करना है; अतः सर्वत्र निषेधक लक्षण होने से
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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