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________________ 118 नय-रहस्य टीका का वह अंश इसप्रकार है - ... अब, जैसे नव तत्त्वों में एक जीव को ही जानना भूतार्थ कहा है, उसीप्रकार एकरूप से प्रकाशमान आत्मा के अधिगम के उपाय जो प्रमाण-नय-निक्षेप हैं, वे भी निश्चय से अभूतार्थ हैं, उनमें भी यह आत्मा एक ही भूतार्थ है.....। इस टीका के बाद आचार्यदेव, कलश 9 में कहते हैं कि आत्मानुभूति होने पर नयों की लक्ष्मी उदित नहीं होती, प्रमाण का सूर्य अस्त हो जाता है और निक्षेपों का समूह कहाँ चला जाता है, हम नहीं जानते, . इसमें अधिक क्या कहें कि द्वैत ही प्रतिभासित नहीं होता। इस कलश का भाव कविवर बनारसीदासजी ने अत्यन्त सफलता पूर्वक निम्नलिखित छन्द में स्पष्ट किया है - जैसें रवि-मंडल के उदै महि-मंडल मैं, आतप अटल तम पटल विलातु है। तैसें परमातमा को अनुभौ रहत जौलौं, तौलौं कहुँ दुविधा न कहुँ पच्छपातु है।। नय को न लेस परवान कौ न परवेस, निच्छेप के वंस को विधुंस होत जातु है। जे जे वस्तु साधक हैं तेऊ तहाँ बाधक हैं। । बाकी राग दोष की दसा की कौन बातु है।। . इस सम्पूर्ण विवेचन का सार यह है कि आत्मानुभूति के पूर्व तत्त्वविचार की प्रक्रिया में होनेवाले सभी विकल्प, रागात्मक होने से पक्षरूप हैं तथा अनुभूति में उनका सहज शमन हो जाने से वह पक्षातिक्रान्त दशा है। आत्मानुभूति के सन्दर्भ में नयपक्ष और पक्षातिक्रान्त का यह विवेचन अत्यन्त गम्भीर और सूक्ष्म है, अतः जिनागम के आलोक में
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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