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पक्षातिक्रान्त
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की अतिक्रान्तता के द्वारा ( अर्थात् श्रुतज्ञान की भूमिका को पार कर चुकने के कारण) समस्त नयपक्ष के ग्रहण से दूर हुए होने से, किसी भी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करते; इसीप्रकार ( श्रुतज्ञानी आत्मा ), क्षयोपशम से जो उत्पन्न होते हैं - ऐसे श्रुतज्ञानात्मक विकल्प उत्पन्न होने पर भी पर का ग्रहण करने के प्रति उत्साह निवृत्त हुआ होने से, श्रुतज्ञान के अवयवभूत व्यवहार- निश्चय नयपक्षों के स्वरूप को केवल जानते ही हैं, परन्तु अतितीक्ष्ण ज्ञानदृष्टि से ग्रहण किये गये निर्मल, नित्य उदित, चिन्मय समय (शुद्धात्मा) से प्रतिबद्धता के द्वारा ( अर्थात् चैतन्यमय आत्मा के अनुभवन द्वारा) अनुभव के समय स्वयं ही विज्ञानघन हुए होने से, श्रुतज्ञानात्मक समस्त अन्तर्जल्परूप तथा बहिर्जल्परूप विकल्पों की भूमिका की अतिक्रान्तता के द्वारा समस्त नयपक्ष के ग्रहण से दूर हुए होने से, किसी भी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करता, वह (आत्मा) वास्तव में समस्त विकल्पों से अति पार को प्राप्त परमात्मा, ज्ञानात्मा, प्रत्यग्ज्योति, आत्मख्यातिरूप, अनुभूतिमात्र समयसार है।
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प्रश्न 11
जिसप्रकार नयपक्ष छोड़कर पक्षातिक्रान्त दशा में आत्मानुभूति होती है; उसीप्रकार क्या प्रमाण का पक्ष भी छोड़कर आत्मानुभूति होती है?
उत्तर हाँ हाँ ! क्यों नहीं? समयसार, गाथा 13 की टीका में समागत कलश के पश्चात् लिखी गई टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने नव तत्त्व, प्रमाण, प्रमाण के प्रत्यक्ष-परोक्ष आदि भेद, नय, नय के द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिक आदि भेद, निक्षेप, निक्षेप के नाम, स्थापना आदि भेद, इत्यादि समस्त विकल्पों को शुद्ध वस्तुमात्र जीव के स्वभाव का अनुभव करने पर अभूतार्थ कहा है । वहाँ वे शुद्ध चैतन्य - मात्र वस्तु को द्रव्य और पर्याय दोनों से अनालिंगित कहते हैं ।
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