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________________ 116 नय-रहस्य है और ऐसा नहीं है - ऐसे विकल्प ही हैं; अतः यह भी विकल्पात्मक पक्ष है। आत्मानुभूति की बात तो अलौकिक है, जबकि इन्द्रिय-भोगों के पूर्व भी उस विषय-सम्बन्धी विकल्प होते हैं और उस विषय के स्वाद में तन्मयता होने पर इस प्रकार के सभी विकल्प शमित हो जाते हैं; अतः इन विकल्पों को भी नयपक्ष कहा जाता है। .. समयसार, गाथा 143 की टीका में क्षयोपशमज्ञान में होनेवाले श्रुतज्ञानात्मक विकल्पों को भी नयपक्ष कहा गया है। इसप्रकार जहाँ जिस विवक्षा से कथन किया गया हो, वहाँ वह विवक्षा ग्रहण करना चाहिए। प्रश्न 10 - विवक्षा ग्रहण करना अर्थात् नयों के विषय को जानने में नयपक्ष है या नहीं? उत्तर - भाई! वस्तु में विद्यमान धर्मों को मात्र जानना, नयपक्ष नहीं है, तत्सम्बन्धी विकल्प अर्थात् उन धर्मों के प्रति रागात्मक झुकाव को नयपक्ष कहा है। समयसार, गाथा 143 की टीका में स्पष्ट कहा गया है कि जिसप्रकार केवली भगवान श्रुतज्ञान की भूमिका से पार होने से समस्त नयपक्ष को ग्रहण नहीं करते, उसीप्रकार श्रुतज्ञानी भी पर को ग्रहण करने का उत्साह निवृत्त होने से व्यवहार-निश्चय नयपक्षों के स्वरूप को मात्र जानते हैं; परन्तु श्रुतज्ञानात्मक समस्त अन्तर्जल्परूप तथा बहिर्जल्परूप विकल्पों की भूमिका से पार होने से किसी भी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करते। यहाँ गाथा 143 की टीका का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है - .. जैसे केवली भगवान, विश्व के साक्षीपन के कारण, श्रुतज्ञान के अवयवभूत व्यवहार-निश्चय नयपक्षों के स्वरूप को ही जानते मात्र हैं, परन्तु निरन्तर प्रकाशमान सहज, विमल, सकल केवलज्ञान के द्वारा सदा स्वयं ही विज्ञानघन हुआ होने से, श्रुतज्ञान की भूमिका
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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