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नय - रहस्य
प्रश्न 7 सम्यग्दर्शन होने के बाद नयपक्ष होता है या नहीं ?
उत्तर - सम्यग्दर्शनरूप श्रद्धा में स्वरूप की निर्विकल्प प्रतीति बनी रहती है तथा ज्ञान भी वस्तु के दोनों पक्षों को यथावत् जानता है; फिर भी स्वरूप में पुन - पुनः स्थिरता के लिए वस्तु के दोनों पक्षों का रागात्मक विचार सहज होता है, जिसे नय-पक्ष कहा जा सकता है।
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पण्डित टोडरमलजी ने रहस्यपूर्ण चिट्ठी में ज्ञानी को आत्मानुभूति के पूर्व होनेवाले प्रयत्नों की चर्चा निम्नलिखित शब्दों में की है -
वही सम्यक्त्वी, कदाचित् स्वरूप ध्यान करने को उद्यमी होता है, वहाँ प्रथम भेदविज्ञान स्व-पर का करे, नोकर्म-द्रव्यकर्मभावकर्मरहित केवल चैतन्य - चमत्कारमात्र अपना स्वरूप जाने; पश्चात् पर का भी विचार छूट जाये, केवल स्वात्मविचार ही रहता है; वहाँ अनेक प्रकार निजस्वरूप में अहंबुद्धि धरता है - चिदानन्द हूँ, सिद्ध हूँ, इत्यादिक विचार होने पर सहज ही आनन्द- तरंग उठती है, रोमांच हो आता है; तत्पश्चात् ऐसा विचार तो छूट जाए, केवल चिन्मात्रस्वरूप भासने लगे, वहाँ सर्व परिणाम उस रूप में एकाग्र होकर प्रवर्तते हैं; दर्शन - ज्ञानादिक का व नय - प्रमाणादिक का भी विचार विलय हो जाता है।
अतः यह कहा जा सकता है कि श्रद्धा - ज्ञान की अपेक्षा तो ज्ञानी पक्षातिक्रान्त ही होते हैं, परन्तु चारित्रमोहोदय के निमित्त से होने वाले विकल्पों की अपेक्षा उन्हें भी नय-सम्बन्धी विकल्प होते हैं, जिन्हें नयपक्ष कहा जा सकता है।
प्रश्न 8 अज्ञानी को मात्र व्यवहार का पक्ष होता है या कभी शुद्धनय का पक्ष भी होता है ?