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________________ 113 पक्षातिक्रान्त नयचक्र, पृष्ठ 131-132 में व्यक्त निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया गया है - यथा सम्यग्व्यवहारेण मिथ्याव्यवहारो निवर्तते तथा निश्चयनयेन व्यवहारविकल्पोऽपि निवर्तते। यथा निश्चयनयेन व्यवहारविकल्पोऽपि निवर्तते तथा स्वपर्यवसितभावेनैकत्व-विकल्पोऽपि निवर्तते। एवं हि जीवस्य योऽसौ स्वपर्यवसितस्वभाव, स एव नयपक्षातीतः।। - जिसप्रकार सम्यक् व्यवहार से मिथ्या व्यवहार की निवृत्ति होती है, उसीप्रकार निश्चयनय से व्यवहार के विकल्पों की. भी निवृत्ति हो जाती है। जिसप्रकार निश्चयनय से व्यवहार के विकल्पों की निवृत्ति होती है; उसीप्रकार स्वपर्यवसितभाव (परनिरपेक्ष स्वाभिंत स्वभाव) से एकत्व का विकल्प भी निवृत्त हो जाता है। इसप्रकार जीव का स्वपर्यवसितस्वभाव ही नयपक्षातीत है। ... अज्ञानी और ज्ञानी, दोनों को होनेवाले नयपक्ष तथा पक्षातिक्रान्त दशा का उल्लेख करते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा समयसार, गाथा 143 की टीका के भावार्थ में लिखते हैं - जैसे, केवली भगवान सदा नयपक्ष के स्वरूप के साक्षी (ज्ञाता-द्रष्टा) हैं, उसीप्रकार श्रुतज्ञानी भी जब समस्त नयपक्षों से रहित होकर शुद्ध चैतन्यमात्र भाव का अनुभवन करते हैं, तब वे नयपक्ष के स्वरूप के ज्ञाता ही हैं, यदि एक नय का सर्वथा पक्ष ग्रहण किया जाए तो मिथ्यात्व के साथ मिला हुआ राग होता है, प्रयोजनवश एक नय को प्रधान करके उसका ग्रहण करे तो मिथ्यात्व के अतिरिक्त मात्र चारित्रमोह का राग रहता है और जब नयपक्ष को छोड़कर, वस्तुस्वरूप को मात्र जानते ही हैं, तब उससमय श्रुतज्ञानी भी केवली की भाँति वीतराग जैसे ही होते हैं - ऐसा जानना।।
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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