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नय-रहस्य
सम्यग्दृष्टि हो सकता है। इसे जाने बिना जब तक व्यवहार में मग्न है, तब तक आत्मा का ज्ञान-श्रद्धानरूप निश्चय-सम्यक्त्व नहीं हो सकता - ऐसा आशय समझना चाहिए।
उक्त गद्यांश में पण्डितजी ने भेदरूप व्यवहार का पक्ष अनादि से है - यह बात स्वीकार करते हुए उसका फल संसार ही बताया है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि व्यवहार के पक्ष का फल संसार कहा है, व्यवहारनय का फल नहीं। व्यवहारनय तो ज्ञानी को ही होता है, जबकि उसका पक्ष अनादि से अज्ञानी को है। यहाँ देहादि में एकत्वबुद्धिरूप मिथ्यात्व को ही व्यवहार का पक्ष कहा है। ___ अनादिकाल से इस जीव को कभी शुद्धनय का पक्ष भी नहीं आया; शुद्धनयरूप परिणमन या उसके आश्रय की तो बात ही दूर रही। शुद्धनय के पक्ष से आशय शुद्धात्मतत्त्व की बात सुनकर, अपूर्वता भासित होना, प्रसन्नता होना, उसके अनुभव की प्यास लगना आदि सम्यक्त्व-पूर्व होनेवाले भावों से है।
यहाँ यह स्पष्ट समझना चाहिए कि अज्ञानी जीव को तत्त्व-निर्णय की प्रक्रिया में व्यवहारनय का विषयभूत आत्मा, आत्मानुभूति के लिए प्रयोजनभूत नहीं है; अतः वह मात्र जानने योग्य है और शुद्धनय का विषयभूत शाश्वत ध्रुव चैतन्य पिण्ड शुद्धात्मा ही वास्तविक आत्मा है; अतः उसी का अवलम्बन करने योग्य है, यह शुद्धनय का पक्ष है - ऐसा यथार्थ निर्णय होने पर ही जीव को आत्मानुभूति की पात्रता प्रगट होती है।
पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा ने शुद्धनय का फल मोक्ष बताया है, शुद्धनय के पक्ष का फल नहीं। पहले व्यवहार का पक्ष छूटकर, शुद्धनय का पक्ष प्रगट होता है, फिर शुद्धनय का पक्ष भी छूटकर, पक्षातिक्रान्त अर्थात् निर्विकल्प अनुभूति प्रगट होती है। यही आशय श्रुतभवनदीपक