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________________ 111 पक्षातिक्रान्त कही जाए तो शुद्धनय-सम्बन्धी विकल्प छोड़ने की बात समझना चाहिए, शुद्धनय के विषय की बात नहीं समझना चाहिए तथा जब शुद्धनय के आलम्बन की बात कही जाए, तब शुद्धनय के विषयभूत आत्मा की बात समझना चाहिए, शुद्धनयरूप पर्याय या शुद्धनयसम्बन्धी विकल्पों की नहीं। यह भी विशेष ध्यान देने योग्य बात है कि शुद्धनय का विकल्प मात्र छोड़ने की बात है, उसका विषय नहीं छुड़ाया। जबकि व्यवहारनय का विकल्प तो छुड़ाया ही है, उसके विषयभूत संयोग, विकार और भेद का लक्ष्य भी छुड़ाया है। यही कारण है कि मात्र जाना हुआ प्रयोजनवान कहा है। प्रश्न 6 - तत्त्वाभ्यास की प्रक्रिया में ही नय-पक्ष (विकल्प) होते हैं या इसके अतिरिक्त भी नय-पक्ष होते हैं? उत्तर - अनादि से हमने शरीरादि पर-पदार्थों को ही आत्मा माना है। इस अनादि अगृहीत मान्यता को व्यवहारनय का पक्ष बताते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा, समयसार की 11वीं गाथा के भावार्थ में लिखते हैं - प्राणियों को भेदरूप व्यवहार का पक्ष तो अनादिकाल से ही है और इसका उपदेश भी बहुधा सर्व प्राणी परस्पर करते हैं तथा जिनवाणी में व्यवहार का उपदेश भी शुद्धनय का हस्तावलम्बन (सहायक) जानकर बहुत किया है; किन्तु उसका फल संसार ही है। शुद्धनय का पक्ष तो कभी आया नहीं और उसका उपदेश भी विरल है, वह कहीं-कहीं पाया जाता है; इसलिए उपकारी श्रीगुरु ने शुद्धनय के ग्रहण का फल मोक्ष जानकर, उसका उपदेश प्रधानता से दिया है कि शुद्धनय भूतार्थ है, सत्यार्थ है; इसकाः आश्रय लेने से
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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