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नय-रहस्य उपलब्ध हैं, जो शुद्धनय का अवलम्बन करने से आत्मानुभूति होने के विधान का प्रतिपादन करते हैं; अतः यहाँ शुद्धनय का पक्ष छोड़ने की बात क्यों कही जा रही है? ।
उत्तर - पक्षातिक्रान्त होने की बात भी समयसार में ही कही गई है। आचार्य अमृतचन्द्र, कर्ता-कर्म अधिकार में नयपक्ष के संन्यास (त्याग) की भावना को कौन नहीं नचाएगा? - ऐसा कहकर 69वें कलश में कहते हैं कि विकल्पजाल से रहित शान्त चित्तवाले स्वरूप गुप्त पुरुष साक्षात् अमृत का पान करते हैं। इसके बाद उन्होंने कलश क्रमांक 70 से 89 तक 20 कलशों की रचना की है, जिसमें दोनों नयों के पक्षपात रहित, तत्त्ववेदी पुरुषों के लिए चैतन्य तो बस चैतन्य ही है - ऐसा कहकर नयपक्ष छोड़ने की प्रेरणा दी है। बानगी के लिए यहाँ कलश क्रमांक 70 दिया जा रहा है -
एकस्य बद्धो न तथा परस्य, चिति द्वयोविति पक्षपातौ। यस्तत्त्ववेदी-च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। __ जीव कर्म से बँधा है - ऐसा एक नय का पक्ष है और जीव कर्म से नहीं बँधा है - ऐसा दूसरे नय का पक्ष है। इसप्रकार चित्स्वरूप जीव के बारे में दो नयों के दो पक्षपात हैं। जो तत्त्ववेदी पक्षपातरहित हैं, उन्हें निरन्तर चित्स्वरूप जीव, चित्स्वरूप ही है (अर्थात् चित्स्वरूप जीव जैसा है, वैसा निरन्तर उनके अनुभव में आता है।) ,
इसके पश्चात् बद्धो के स्थान पर मूढो, रक्तो, दुष्टो, कर्ता आदि अन्य धर्मों का उल्लेख करते हुए हूबहू वैसे ही 19 कलश और रचे हैं।
वास्तव में शुद्धनय का पक्ष छोड़ना तथा शुद्धनय का आश्रय करना - इन दोनों कथनों में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि दोनों जगह शुद्धनय शब्द का आशय अलग-अलग है। जब शुद्धनय का पक्ष छोड़ने की बात