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पक्षातिक्रान्त
109 के काल में अनेक विकल्प सहज उठते हैं तथा प्रत्यक्ष अनुभव होने पर उन विकल्पों का शमन हो जाना स्वाभाविक है, सहज सिद्ध है; अतः प्रत्यक्षानुभूति, नयपक्षातीत-विकल्पातीत है।
प्रश्न 4 - यदि आत्मानुभूति में सभी नयों का पक्ष छूट जाता है तो नयों को जानने की क्या आवश्यकता है?
उत्तर - नयों की उपयोगिता के प्रकरण में इस बात की चर्चा विस्तार से की गई है, अतः जिज्ञासु पाठकों से अनुरोध है कि एक बार पुनः उस प्रकरण को पढ़ लें। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने समयसार की 6वीं-7वीं गाथा में शुद्धात्मा का स्वरूप बताने के तत्काल बाद 8वीं से 12वीं गाथा तक निश्चय-व्यवहार में प्रतिपाद्य-प्रतिपादकपना तथा व्यवहारनय की अभूतार्थता और शुद्धनय की भूतार्थता का वर्णन किया है। आचार्य उमास्वामी ने भी प्रमाणनयैरधिगमः सूत्र द्वारा प्रमाण-नयों की उपयोगिता बताई है।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि आत्मानुभूति के लिए नयों को जानना भी जरूरी है, लेकिन यदि नय-विकल्पों में उलझे रहकर, आत्मा का साक्षात्कार करके निर्विकल्प अनुभूति का सहज पुरुषार्थ नहीं किया जाएगा तो भी आत्मानुभूति नहीं होगी; अतः विषयकषाय, धन्धे-व्यापार तथा अन्य अनर्थदण्डरूप विकल्प-जाल को कम करके जिनागम का अभ्यास करना चाहिए, जो कि प्रमाण-नय का स्वरूप जाने बिना सम्भव नहीं हैं। इन्हें जानने का निषेध करना जिनागम की तीव्र विराधना है, जिससे बचना प्रत्येक आत्मार्थी का.. कर्तव्य है।
प्रश्न 5 – समयसार में भूतार्थ के आश्रय से सम्यग्दर्शन होना कहा है। यहाँ तक कि निश्चय नयाश्रित श्रमण ही, प्राप्ति करें निर्वाण की तथा तजे शुद्धनय बन्ध है, गहे शुद्धनय मोख - ऐसे अनेक कथन