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-पक्षातिक्रान्त
अनुभव, पक्षातिक्रान्त दशा है तथा स्वभाव- सम्बन्धी विकल्प, शुद्धय का पक्ष है और संयोग विकार या भेद - सम्बन्धी विकल्प, व्यवहारनय का पक्ष है।
प्रश्न 2 जब प्रमाण एवं नयों के बिना वस्तु का निर्णय नहीं हो सकता तो नय-पक्ष छोड़ने से आत्मानुभूति कैसे हो जाएगी ?
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उत्तर इस प्रश्न का उत्तर आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने समयसार कलश 69 में दिया है। वह कलश इस प्रकार है
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य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं, स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यम् । विकल्पजालच्युतशान्तचित्ताः, त एव साक्षादमृतं पिबन्ति ।।
जो नय-पक्ष-पात को छोड़कर, सदा स्वरूप में गुप्त होकर निवास करते हैं और जिनका चित्त विकल्प - जाल से रहित शान्त हो गया है, वे ही साक्षात् अमृत का पान करते हैं।
इसके भावार्थ से स्पष्ट किया गया है कि जब तक कुछ भी पक्ष - पात (विकल्प) रहता है तब तक चित्त का क्षोभ नहीं मिटता । जब नयों का सब पक्ष-पात दूर हो जाता है, तब वीतराग दशा होकर स्वरूप की श्रद्धा निर्विकल्प होती है, स्वरूप में प्रवृत्ति होती है और अतीन्द्रिय सुख का अनुभव होता है।
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प्रश्न 3 - जब अनुभूति, पक्षान्तिक्रान्त होती है तो नय - विकल्पों की क्या आवश्यकता है?
उत्तर नयों का प्रयोग, विकल्पात्मक भूमिका में तत्त्वों का निर्णय करने के लिए ही होता है, आत्माराधना के समय नहीं । अनुभव के काल में तो नय - सम्बन्धी सर्व विकल्प विलय को प्राप्त होते हैं । द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, गाथा 268 में यही आशय निम्नलिखित