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जैनाभास
देशना प्राप्त होने पर तत्त्व-निर्णय की प्रक्रिया तो विशेष प्रयत्नपूर्वक सम्पन्न होती है, परन्तु वह प्रयत्न भी आत्म-कल्याण की प्रेरणा से सहज होता है। तत्त्व-निर्णय में ज्ञानी गुरु अथवा साधर्मी मार्गदर्शक तो होते हैं, परन्तु सत्य समझने का पुरुषार्थ, जीव स्वयं ही करता है।
अपने ज्ञान में तत्त्व का स्वरूप कब और किसप्रकार भासित होगा - इसमें कोई बाह्य-निमित्त हस्तक्षेप नहीं कर सकता। तत्त्व-निर्णय में जीव की तत्समय की योग्यता ही समर्थ उपादान कारण है और वह योग्यता, अपने स्वकाल में सहज प्रगट होती है।
तत्त्व-निर्णय की प्रक्रिया में, क्षयोपशम ज्ञान में वस्तु-स्वरूप का निर्णय होने के साथ-साथ स्वरूप की महिमा अर्थात् रुचि भी वृद्धिंगत होती है। यह रुचि अर्थात् स्वभाव का रस ही दर्शनमोह के अनुभाग में मन्दता का निमित्त बनता है, जिससे जीव-प्रायोग्यलब्धि में आता है। मात्र बहिर्लक्ष्यी शास्त्रज्ञान, मोह की मन्दता में निमित्त नहीं बनता।
प्रायोग्यलब्धि अर्थात् मिथ्यात्व की विशेष मन्दता होने पर स्वानुभूति के लिए तत्त्व-विचार आदि मानसिक प्रयत्न भी सहज होते हैं और जीव करणलब्धि में आकर सम्यक्त्व प्रगट कर लेता है। करणलब्धि में स्वरूप-सन्मुखता का अबुद्धिपूर्वक प्रयत्न, सहज होता है।
सामान्यतया किसी भी कार्य के लिए हमारी मन-वचन-काय सम्बन्धी चेष्टाओं को प्रयत्न/उद्यम/पुरुषार्थ कहा जाता है, परन्तु इन विकल्पों से तो कार्य की उत्पत्ति नहीं होती। विकल्पानुसार कार्य हो भी
और न भी हो। कार्य तो तत्समय की योग्यता से ही होता है, अतः व्यवहार से यत्नसाध्य कहे जाने पर भी परमार्थ से प्रत्येक कार्य अपने स्वकाल में उस द्रव्य की तत्समय की योग्यतानुसार सहज ही होता है। इस योग्यता के निर्णय से अकर्ता स्वभाव की रुचि होना ही सम्यक्त्वसन्मुखता का पुरुषार्थ है।