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________________ . 96. नय-रहस्य देखो! तत्त्व-विचार की महिमा! तत्त्व-विचाररहित देवादिक की प्रतीति करे, बहुत शास्त्रों का अभ्यास करे, व्रतादिक पाले, तपश्चरणादि करे, उसको तो सम्यक्त्व होने का अधिकार नहीं और तत्त्व-विचारवाला इनके बिना भी सम्यक्त्व का अधिकारी होता है। तत्त्व-निर्णय के पश्चात् यह जीव करणलब्धि के योग्य परिणाम करता हुआ, सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है तथा करणलब्धिवाला जीव, नियम से सम्यक्त्व प्राप्त करता ही है; अतः करणलब्धि की दशा ही सच्ची सम्यक्त्व-सन्मुखता है। इसीलिए पण्डित टोडरमलजी ने तत्त्वनिर्णय की प्रक्रिया के बाद पाँच लब्धियों का वर्णन किया है, जो मूलग्रन्थ से पठनीय है। प्रश्न - सम्यग्दर्शन सहजसाध्य है या यत्नसाध्य? उत्तर - जन्मजात ज्ञानावरणादिक का क्षयोपशम तो हमारे प्रयत्नों के बिना ही होता है, अतः वह सहज है। कभी-कभी विशुद्धि, एकाग्रता, रुचि आदि बाह्य प्रयत्नों के द्वारा भी क्षयोपशम बढ़ता देखा जाता है, उसे कथंचित् प्रयत्नसाध्य भी कहा जा सकता है। सच्चे गुरु की देशना का योग सहजं. भी बन जाता है और आत्म-हित की रुचि होने पर बुद्धिपूर्वक भी बनाया जाता है। देशना का निमित्त मिलने पर बुद्धिपूर्वक विचार करके आत्म-हित की रुचि जाग्रत करना, प्रायः प्रयत्नपूर्वक ही होता है। कभी-कभी किसी बाह्य-वैराग्य आदि का प्रसंग बनने पर सहज ही आत्म-कल्याण के भाव जाग्रत होते हैं तो जीव, सत्समागम और तत्त्वाभ्यास में प्रयत्नशील होता है। इसप्रकार क्षयोपशम, विशुद्धि और देशनालब्धि प्रयत्नपूर्वक भी होती है और सहज भी होती है।
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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