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जैनाभास
95 . इसप्रकार आत्महित के प्रयोजन से उपदेश में सुनी गई प्रयोजनभूत बातों के निर्णय करने हेतु प्रयत्नशील होना - यही सम्यक्त्व-सन्मुखता का प्रथम बिन्दु है। ___ तत्त्व-निर्णय की प्रक्रिया में वह जीव, प्रयोजनभूत तत्त्वों की परीक्षा में तब तक प्रयत्नशील रहता है, जब तक कि जैसा उपदेश सुना है, वैसा ही निर्णय होकर अन्तरंग में भाव-भासित न हो जाए।
तत्त्व-निर्णय की प्रक्रिया में अन्तरंग परिणति का उल्लेख करते हुए पण्डित टोडरमलजी, मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ 260 पर लिखते हैं -
इसप्रकार इस जानने के अर्थ कभी स्वयं ही विचार करता है, कभी शास्त्र पढ़ता है, कभी सुनता है, कभी अभ्यास करता है, कभी प्रश्नोत्तर करता है - इत्यादिरूप प्रवर्तता है। अपना कार्य करने का इसको हर्ष बहुत है, इसलिए अन्तरंग प्रीति से उसका साधन करता है। इसप्रकार साधन करते हुए जब तक (1) सच्चा तत्त्वश्रद्धान न हो, (2) 'यह इसीप्रकार है' - ऐसी प्रतीतिसहित जीवादि तत्त्वों का स्वरूप आपको भासित न हो, (3) जैसे पर्याय में अहंबुद्धि है, वैसे केवल आत्मा में अहंबुद्धि न आए, (4) हित-अहितरूप अपने भावों को न पहिचाने; तब तक सम्यक्त्व के सन्मुख मिथ्यादृष्टि है। यह जीव, थोड़े ही काल में सम्यक्त्व को प्राप्त होगा; इसी भव में या अन्य पर्याय में सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा।
उक्त विवेचन में उपदेश में सुने गये वस्तु-स्वरूप की अपूर्वता और आत्महित की भावना में अत्यन्त हर्ष होना - ये दो बिन्दु सम्यक्त्व-सन्मुखता के विशेष लक्षण कहे जा सकते हैं।
सम्यक्त्व के पुरुषार्थ में तत्त्व-विचार की अनिवार्यता का प्रतिपादन - करते हुए पण्डितजी पूर्वोक्त स्थल पर लिखते हैं -