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जैनाभास
उभयाभासी जीव की परिणति
उभयाभासी जीव की अनेक मान्यताएँ, निश्चयाभासी जैसी होने पर भी वे व्यवहार - साधन को भला जानते हैं, इसलिए स्वच्छन्द प्रवृत्ति नहीं करते, व्रतादि शुभोपयोगरूप प्रवृत्ति करने से अन्तिम ग्रैवेयेक तक भी चले जाते हैं। निश्चयाभास की प्रबलता से अशुभ प्रवृत्ति करके कुगति में भी जा सकते हैं। परिणामों के अनुसार फल प्राप्त करते हैं, परन्तु संसार में ही भ्रमण करते रहते हैं, सच्चा मोक्षमार्ग प्राप्त नहीं करते।
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सम्यक्त्व - सन्मुख मिथ्यादृष्टि का स्वरूप
निश्चयाभासी, व्यवहाराभासी और उभयाभासी की मीमांसा करने के बाद पण्डितजी ने सम्यक्त्व - सन्मुख मिथ्यादृष्टि का वर्णन किया है। यद्यपि उन्होंने जैनाभासी मिथ्यादृष्टियों के अन्तर्गत ही सम्यक्त्वसन्मुखता का भी वर्णन किया है, तथापि सम्यक्त्व - सन्मुख मिथ्यादृष्टि और निश्चयाभासी आदि तीनों जैनाभासियों में बहुत अन्तर है ।
उक्त तीनों जैनाभासी नय - विवक्षा को न जानकर, शास्त्रों का विपरीत अभिप्राय ग्रहण करके मिथ्यात्व को दृढ़ करते हैं अर्थात् वे विपरीत शास्त्राभ्यासी हैं; जबकि सम्यक्त्व - सन्मुख जीव तो देशना सुनकर, आत्महित की भावना जाग्रत करके तत्त्व-निर्णय के लिए प्रयत्नशील होता है। उसका यथार्थ तत्त्व-निर्णय, उसे उक्त तीनों जैनाभासों से बचाते हुए प्रायोग्यलब्धि में पहुँचा देता है अर्थात् उसके दर्शनमोह के साथ समस्त कर्मों के स्थिति- अनुभाग घटने लगते हैं; लेकिन यदि वह जिनवाणी का यथार्थ अभिप्राय ग्रहण न करके विपरीत अभिप्राय ग्रहण कर ले तो उक्त तीन जैनाभासों में से किसी एक जैनाभास में भटक कर