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जैनाभास
89 संसारी जीव की पर्याय में रागादि तथा मतिज्ञान आदि निश्चयनय से हैं, लेकिन त्रिकाली स्वभाव की अपेक्षा व्यवहार से कहा गया हैं - ऐसा मानना चाहिए।
6. विपरीत मान्यता - यथायोग्य व्रतादि क्रिया तो करना चाहिए, परन्तु उसमें ममत्व नहीं करना चाहिए?
निराकरण - हम स्वयं जिसके कर्ता हैं, उसमें ममत्व कैसे न किया जाए? और यदि हम कर्ता नहीं हैं तो व्रतादि करना चाहिए - यह भाव कैसे सम्भव है? यदि हम कर्ता हैं तो व्रतादि के भाव अपने कर्म हुए। इसप्रकार कर्ता-कर्म सम्बन्ध स्वयमेव हो ही गया, अतः उपर्युक्त मान्यता भ्रम है।
बाह्य व्रतादि क्रियाएँ शरीर की क्रिया हैं। आत्मा, उनका कर्ता नहीं है, अतः उनमें कर्तृत्वबुद्धि और ममत्वबुद्धि नहीं करना चाहिए। व्रतादि में जो शुभोपयोग है, वह आत्मा का परिणाम है; अतः अपने को पर्यायदृष्टि से उनमें कर्तृत्व-ममत्व भी करना चाहिए, परन्तु इस शुभोपयोग को बन्ध का ही कारण जानना चाहिए, मोक्ष का कारण नहीं। जहाँ व्रत और अव्रत अर्थात् परद्रव्य के त्याग-ग्रहण का कुछ भी विकल्प नहीं है - ऐसे उदासीन शुद्धोपयोग को ही मुक्ति का मार्ग मानना चाहिए।
शुभाशुभभावों के ग्रहण-त्याग के सन्दर्भ में मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ 255-256 पर निम्नलिखित कथन विचारणीय है -
इसप्रकार शुद्धोपयोग ही को उपादेय मानकर, इसका उपाय करना और शुभोपयोग-अशुभोपयोग को हेय जानकर, उनके त्याग का उपाय करना। जहाँ शुद्धोपयोग न हो सके, वहाँ अशुभोपयोग को छोड़कर, शुभ में ही प्रवर्तन करना, क्योंकि शुभोपयोग की अपेक्षा .