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________________ 86 नय-रहस्य में वर्णित उभयैकान्त से मिली है। यद्यपि पंचास्तिकाय की टीका के अन्त में आचार्य अमृतचन्द्र एवं आचार्य जयसेन, दोनों ने निश्चयाभासी एवं व्यवहाराभासी का संक्षिप्त विवेचन तो किया है, जिसका विस्तार पण्डित टोडरमलजी ने किया है, लेकिन उभयाभासी प्रकरण तो उनके चिन्तन की मौलिक विशेषता ही है। उभयाभासियों की मानसिक दुविधा का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं - जो जीव ऐसा मानते हैं कि जिनमत में निश्चयव्यवहार, दोनों नय कहे हैं, इसलिए हमें उन दोनों को अंगीकार करना चाहिए - ऐसा विचार कर, जैसे केवल निश्चयाभास के अवलम्बियों का कथन किया था, वैसे तो निश्चय का अंगीकार करते हैं और जैसे, केवल व्यवहाराभास के अवलम्बियों का कथन किया था, वैसे व्यवहार का अंगीकार करते हैं। यद्यपि इसप्रकार अंगीकार करने में दोनों नयों के परस्पर विरोध है, तथापि करें क्या? सच्चा तो दोनों नयों का स्वरूप भासित हुआ नहीं और जिनमत में दो नय कहे हैं, उनमें से किसी को छोड़ा भी नहीं जाता, इसलिए भ्रमसहित दोनों नयों का साधन साधते हैं, वे जीव भी मिथ्यादृष्टि जानना। - उक्त मानसिक दुविधा के फलस्वरूप उभयाभासी द्वारा किये जाने वाले तत्त्व-अभ्यास में अनेक भूलें उत्पन्न हो जाती हैं। यहाँ उनकी कुछ प्रमुख विपरीत मान्यताओं का, उनके संक्षिप्त निराकरण सहित वर्णन किया जा रहा है - 1. विपरीत मान्यता - मोक्षमार्ग दो प्रकार का है - निश्चय __ मोक्षमार्ग और व्यवहार मोक्षमार्ग? . निराकरण - मोक्षमार्ग दो नहीं हैं, मोक्षमार्ग का निरूपण दो
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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