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________________ जैनाभास न जानकर, मात्र स्वयं के द्वारा मान्य तथाकथित व्यवहार रत्नत्रयात्मक शुभ-विकल्पों में ही सन्तुष्ट हो जाते हैं। इसका संक्षिप्त विवरण निम्नानुसार है - ___ 1. पण्डित प्रवर दौलतरामजी कृत छहढाला की तीसरी ढाल में समागत 'परद्रव्यनि तें भिन्न आप में, रुचि सम्यक्त्व भला है' - इस पंक्ति के अनुसार जो शुद्धात्मतत्त्व की रुचि-प्रतीतिरूप निश्चय सम्यक्त्व को नहीं जानते और मात्र देव-शास्त्र-गुरु तथा जीवदि सात तत्त्वों के विकल्पात्मक श्रद्धान में ही सन्तुष्ट रहते हैं। 2. 'आपरूप को जानपनो सो, सम्यग्ज्ञान कला है' - इस पंक्ति में कहे अनुसार, जो देहादि और रागादि से भिन्न आत्मा को नहीं जानते और मात्र जैन-शास्त्रों के पठन-पाठन में ही सन्तुष्ट रहते हैं। 3. 'आपरूप में लीन रहे थिर, सम्यक् चारित सोई' - इस पंक्ति में कहे अनुसार, जिन्हें आत्मलीनतारूप वीतरागदशा-का अंश भी प्रगटं नहीं हुआ और मात्र व्रत-शील-संयमादि बाह्याचरण में ही सन्तुष्ट रहते हैं। इसप्रकार मात्र व्यवहार में ही सन्तुष्ट रहने के कारण ये जीव धर्मबुद्धि से धर्मधारक व्यवहाराभासी कहलाते हैं। इनके व्यवहार श्रद्धान-ज्ञान-आचरण में भी अनेक विपरीतताएँ तथा विकृतियाँ पाई जाती हैं, जिनका विस्तृत वर्णन मोक्षमार्ग प्रकाशक के सातवें अध्याय से जानने योग्य है। . उभयाभासी मिथ्यादृष्टि का स्वरूप जैनाभास के प्रकरण में उभयाभास का वर्णन करना, पण्डित टोडरमलजी के मौलिक चिन्तन का परिचय देता है। ऐसा लगता है कि ऐसे चिन्तन की अव्यक्त प्रेरणा, उन्हें आचार्य समन्तभद्र की आप्तमीमांसा
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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