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नय-रहस्य बल्कि सुविधाओं के लिए धर्मात्मा दिखना है अर्थात् ये धर्म को बेचना चाहते हैं।
, यहाँ यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि जिनशासन की अन्तर्बाह्य प्रभावना के परिणामों से बाँधे गए पुण्योदय से सहज, ही अनुकूल संयोग बनते हैं और गृहस्थ भूमिका में राग होने से लोग उन्हें स्वीकार भी करते हैं। यह तो प्रकृति की सहज व्यवस्था है। पण्डितजी ने सुविधाएँ लेने-देने का निषेध नहीं किया, अपितु सुविधाओं के उद्देश्य से धर्माचरण करने का निषेध किया है। मुनिराजों के आहार आदि की व्यवस्था के सन्दर्भ में उन्होंने यह बात अच्छी तरह स्पष्ट की है। ___4. धर्मबुद्धि से धर्मधारक व्यवहाराभासी
यहाँ धर्मबुद्धि से आशय मात्र आत्मकल्याण का प्रयोजन मुख्य रखने से है, तीसरे प्रकार के व्यवहाराभासियों से भिन्न ये लोग मात्र मुक्ति
की वांछा से धर्म-साधन करते हैं। धर्मधारक से आशय भक्ति, पूजा, दया, दान, व्रत, संयम आदि बाह्याचरण करने से है। ... लौकिक सुख-सुविधा आदि की कामना न रखकर, मात्र मुक्ति की कामना से बाह्य-धर्माचरण करते हुए भी जो लोग, बाह्य-क्रिया में ही धर्म मानकर सन्तुष्ट होते हैं और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप वीतराग-धर्म के लिए प्रयत्न नहीं करते, वे भी धर्मबुद्धि से धर्मधारक व्यवहाराभासी हैं - ऐसे जीवों को ईमानदार मिथ्यादृष्टि कहना उचित है, क्योंकि वे धर्म का प्रदर्शन नहीं करना चाहते, उसे बेचना नहीं चाहते; अपितु मुक्ति-प्राप्ति के लिए सच्चे हृदय से धर्म करना चाहते हैं, परन्तु सच्चे धर्म का स्वरूप नहीं जानते, इसलिए मिथ्यादृष्टि हैं। ... ऐसे जीव, धर्म करने के लिए सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट करने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु आत्मानुभूति स्वरूप निश्चय रत्नत्रयधर्म को