________________
जैनाभास है। यदि मात्र आज्ञा मानने से ही प्रतीति हो जाती तो ग्रैवेयक तक जानेवाले मुनि भी मिथ्यादृष्टि क्यों रहते हैं? इसलिए परीक्षा करके आज्ञा मानने पर ही सम्यक्त्व व धर्मध्यान होता है।
कुछ लोग परीक्षा तो करते हैं, परन्तु मात्र बाह्य-चिह्नों से अर्थात् तप-शील-संयम, पूजा-प्रभावना, चमत्कारादि तथा इष्ट-प्राप्ति से प्रभावित होकर ही जैनधर्म को सच्चा मान लेते हैं। जैनधर्म में कहे गए वस्तुस्वरूप और वीतरागभावरूप धर्म का सच्चा निर्णय नहीं करते; अतः उन्हें भी सच्ची तत्त्व-प्रतीति नहीं होती।
• यह सम्पूर्ण प्रकरण, मूल ग्रन्थ से अवश्य पढ़ने और विचारने योग्य है। उक्त दोनों प्रकार के मिथ्यादृष्टियों को भोले मिथ्यादृष्टि कहा जा सकता है, क्योंकि भोलेपन के कारण ये कुल अथवा शास्त्र की आज्ञा मानकर धर्माचरण करते हैं। इन्हें औरों से भला बताते हुए पण्डित टोडरमलजी लिखते हैं - .
इतना तो है कि जिनमत में पाप की प्रवृत्ति विशेष नहीं हो सकती और पुण्य के निमित्त बहुत हैं तथा सच्चे मोक्षमार्ग के कारण भी वहाँ बने रहते हैं, इसलिए जो कुलादि से भी जैनी हैं, वे औरों से तो भले ही हैं।
3. सांसारिक प्रयोजनार्थ धर्मधारक व्यवहाराभासी
जो लोग, आजीविका व यश के लोभ से तथा कुछ विषय-कषाय सम्बन्धी प्रयोजन की पूर्ति के लिए कपट से जैनी होते हैं, वे पापी ही हैं। जैनधर्म का सेवन तो विषय-कषाय का नाश करने के लिए किया जाता है, परन्तु उसके द्वारा विषय-कषाय की पूर्ति की वांछा रखना अति तीव्र कषाय के बिना सम्भव नहीं है - ऐसे मिथ्यादृष्टियों कों बेईमान मिथ्यादृष्टि कहना उचित है, क्योंकि इन्हें धर्म नहीं करना है,