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करना चाहता हूँ कि जब डॉ. भारिल्ल, इस ग्रन्थ की रचना कर रहे थे, उस समय मैं भी जयपुर में ही रह कर, श्री टोडरमल दिगम्बर जैन सिद्धान्त महाविद्यालय में शास्त्री-आचार्य की कक्षाओं में अध्ययन तथा वीतराग विज्ञान मासिक पत्रिका एवं श्री कुन्दकुन्द कहान दिगम्बरजैन तीर्थसुरक्षा ट्रस्ट के जयपुर में संचालित सत्साहित्य प्रकाशन विभाग का कार्य भी देख रहा था, तब डॉ. साहब से भी मेरा बहुत घनिष्ठ सम्पर्क रहता था, मैं रात-दिन उनके सम्पर्क में ही रहता था। वे प्रतिदिन जो कुछ भी लिखते थे तो मुझे पढ़ने के लिए बुलाते थे। अनेक बार तो रात के १२-१२ बजे तक हम उनके द्वारा लिखित सामग्री पर विचार करते थे। . - मैं उनसे अपनी बुद्धि के अनुसार नयों के विभिन्न विषयों पर चर्चा भी करता था तथा उनके सम्बन्ध में जो भी प्रश्न मुझे उपस्थित होते, उन्हें उनके सन्मुख रखता भी था, वे उसका यथोचित समाधान तत्काल भी करते
और उचित समझते तो ग्रन्थ में प्रश्नोत्तर के रूप में स्थान भी देते। लेकिन खेद है - मुझे यह सौभाग्य, सन् १९८४ तक ही प्राप्त हो सका, उसके बाद मुझे अपरिहार्य कारणवशात् नागपुर आना पड़ा।
प्रारम्भ में इस कृति का नाम जिनवरस्य नयचक्रम् रखा गया था, परन्तु वह नाम, संस्कृतनिष्ठ होने से तथा इस कृति में अपने निज ज्ञायक परमभाव के प्रकाशन की मुख्यता होने से इस ग्रन्थ का नाम परमभावप्रकाशक नयचक्र रखा गया है। पूर्वाचार्यों ने नयचक्रों के नाम भी द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र या श्रुतभवनदीपक नयचक्र - इसी शैली में रखे गये थे, अत: उसी परम्परा का निर्वाह करने हेतु भी इस कृति को यह नाम सार्थक नाम दिया गया है।
जबसे इस कृति का निर्माण हुआ है, मुझे ऐसा लगता है कि इससे जैन समाज में एक अपूर्व सामंजस्य भी दृष्टिगोचर होने लगा है। जिन
नय-रहस्य