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________________ विषयों पर हम पहले एक-दूसरे से उलझ जाते थे, उन्हीं विषयों को अब हम स्वीकारोक्ति की भाषा प्रदान करने लगे हैं - 'अच्छा, यह बात इस अपेक्षा / नय से कही जा रही है तो ठीक है - ऐसा मानने में हमें कोई आपत्ति नहीं है।' जब डॉ. साहब लिखते थे तो उनके व्याख्यानों में भी सहज ही वे सब विषय आते थे और सम्पूर्ण छात्रों के बीच भी चर्चित हो जाते थे, अत: हम सभी उन विषयों से उनके गुरु-मुख से ही परिचित हो जाते थे। पण्डितश्री अभयकुमारजी शास्त्री भी इस कृति से इसके लेखन-काल से ही जुड़े हैं, वे प्रारम्भ से ही श्री टोडरमल महाविद्यालय के जूनियर छात्रों में एवं जयपुर या बाहर लगने वाले शिक्षण शिविरों अथवा प्रशिक्षण शिविरों में इस विषय की कक्षा भी ले रहे हैं; इस कारण यह विषय उनकी प्रज्ञा में अच्छी तरह व्यवस्थित हो गया है। इस विषय का अध्ययन / अध्यापन करते हुए नयों के सम्बन्ध में उनका जो भी चिन्तन विकसित हुआ, उसे उन्होंने इस कृति - नय-रहस्य में अच्छी तरह प्रस्तुत किया है। यद्यपि इसमें समागत अधिकांश विषय तो आदरणीय डॉ. भारिल्ल ने जो परमभावप्रकाशक नयचक्र में विवेचित किये हैं, उसी का विस्तार है, लेकिन अनेक जगह उन्होंने अपने मौलिक चिन्तन के साथ भी विषय प्रस्तुत किया है। उसी के आधार पर यदि इसे नय-रहस्य कहा जा रहा है, तो अनुचित नहीं है। सम्पादक के रूप में मैंने इस कृति में ज्यादा कुछ नहीं किया है, मात्र मैंने तो इस कृति का अच्छी तरह स्वाध्याय किया है। हाँ, जिन स्थानों पर मेरा ध्यान आकर्षित हुआ, उन स्थलों को मैं बिन्दुवार यहाँ उल्लेख अवश्य करना चाहता हूँ। कुछ स्थलों पर मैंने भाईसाहब श्री अभयजी से चर्चा भी की है। साथ ही जो कुछ विशेष चर्चा मुझे करना है, उसे मैंने अलग से प्रस्तावना में भी लिख दिया है। नय-रहस्य -
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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