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नय - रहस्य
को उपचरित न मानकर सर्वथा सत्यार्थ मानना, व्यवहाराभास है।
व्यवहाराभासी जीव, आत्मा को रंग-राग और भेद से भिन्न चैतन्यस्वभावी न मानकर मनुष्य, देव, स्त्री, पुरुष आदि पर्यायरूप तथा रागादिभावों से तन्मय मानकर, उनका कर्ता - भोक्ता मानते हैं । इसीप्रकार वे शुभभाव को मोक्षमार्ग में निमित्त व सहचारी न मानकर, उसे ही सच्चा मोक्षमार्ग मान लेते हैं।
पण्डितप्रवर टोडरमलजी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक के सातवें अधिकार • में निम्नानुसार चार प्रकार के व्यवहाराभासियों का वर्णन किया है - 1. कुल अपेक्षा धर्मधारक व्यवहाराभासी
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कुल में चली आई परम्पराओं का पालन करने में धर्म मानना, व्यवहाराभास है। ये परम्पराएँ धर्म - विरुद्ध भी हो सकती हैं और धर्मानुकूल भी हो सकती हैं। किसी कुल देवी या कुल देवता की पूजा करना आदि धर्म-विरुद्ध परम्परा है। वीतरागी देव-गुरु-धर्म की श्रद्धा, भक्ति, रात्रिभोजन तथा अन्य अभक्ष्य पदार्थों का त्याग, धर्मानुकूल परम्परा है। इन धर्मानुकूल परम्पराओं को वीतरागता के पोषण के उद्देश्य से पालने के बदले कुल-परम्परा के पोषण हेतु पालना भी कुल अपेक्षा धर्मधारक व्यवहाराभास है।
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इस प्रकरण में पण्डितजी द्वारा दिया गया निष्कर्ष अनुकरणीय है - यदि कुलक्रम ही से धर्म हो तो मुसलमान आदि सभी धर्मात्मा हो जाएँ। जैनधर्म की क्या विशेषता रही ?
तथा यदि कुल में जैसी जिनदेव की आज्ञा है, उसीप्रकार धर्म की प्रवृत्ति है तो अपने को भी वैसे ही प्रवर्तन करना योग्य है; परन्तु उसे कुलाचार न जान धर्म जानकर, उसके स्वरूप, फलादि का निश्चय करके अंगीकार करना। जो सच्चे भी धर्म को कुलाचार जानकर प्रवर्तता है तो उसे धर्मात्मा नहीं कहते; क्योंकि यदि सब