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नय - रहस्य
1. आत्मा, वर्तमान पर्याय में भी सिद्धों के समान शुद्ध है अर्थात्
रागादिरहित है।
आत्मा की वर्तमान पर्याय में भी केवलज्ञान प्रगट है, परन्तु वह कर्मों से ढँका हुआ है।
3. आत्मा, द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्म से सर्वथा रहित है। 4. व्रत - शील - संयमादि, बन्ध के कारण हैं, अतः सर्वथा त्याज्य हैं। 5. शास्त्राभ्यास भी पर- द्रव्याश्रित होने से हेय है।
6. सात तत्त्व के चिन्तन से बन्ध होता है, अतः केवल आत्मा का चिन्तन करना चाहिए ।
7. तपश्चरणादि में वृथा क्लेश होता है।
8. परिणाम शुद्ध हों तो बाह्य - त्याग करना आवश्यक नहीं है।
9. प्रतिज्ञा करने में बन्धन होता है, अतः प्रतिज्ञारूप व्रतादि अंगीकार नहीं करना चाहिए।
10. शुभोपयोग भी बन्ध का कारण है, अतः शुभरूप प्रवर्तन नहीं करना चाहिए।
उपर्युक्त सभी मान्यताओं का आगम- प्रमाण सहित और तर्कसंगत निराकरण, पण्डित टोडरमलजी ने किया है, जिसका मूलतः गहराई से अध्ययन करना अति आवश्यक है । विस्तार से बचने के लिए यहाँ उनका निराकरण नहीं किया जा रहा है।
बहुत- से भोले लोग तो समयसारादि अध्यात्म ग्रन्थों के पठनपाठन को निश्चयाभास और श्रावकाचार तथा गोम्मटसारादि व्यवहारप्रधान ग्रन्थों के पठन-पाठन को व्यवहाराभास कहकर, इनके पठनपाठन का ही निषेध करके जिनवाणी का निषेध करने के महापाप का बन्ध करते हैं, उन्हें यह परन्तु विचार करना चाहिए कि चारों अनुयोग, वीतरागी सन्तों द्वारा रचे गये हैं तथा जिनागम के अभ्यास को व्यवहार से सम्यग्ज्ञान कहा गया है; अतः किसी भी शास्त्र के अभ्यास को
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