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________________ 74 नय-रहस्य नाश के लिए किया जाता है; हम उसी जिनवाणी का मर्म न समझने से सच्चे जैन बनने के बदले जैनाभासी हो जाते हैं। . संस्कृत की एक सूक्ति में कहा गया है - उपदेशो हि मूर्खाणां, प्रकोपाय न शान्तये। - पयः-पानं भुजंगानां, केवलं विषवर्धनम्।। .. जैसे, सर्प को दूध पिलाने से उसका विष ही बढ़ता है, वैसे ही मूखों को उपदेश देने से उनका प्रकोप शान्त नहीं होता। हमारी भी ऐसी ही स्थिति हो रही है। हमारे मिथ्यात्वरूपी विष की तीव्रता के कारण जिनवाणी माता का दूध पीने पर भी वह हमारे अभिप्राय में निश्चयाभास, व्यवहाराभास या उभयाभासरूपी मिथ्यात्व के रूप में परिणमित हो जाता है। अतः यहाँ इन तीनों प्रकार के जैनाभास का संक्षिप्त विवेचन किया जा रहा है। .. 2. जैनाभासी मान्यता का मूल कारण लोक में सामान्यतया प्रत्येक वस्तु पेकिंग (आवरण) सहित होती है। प्रकृति से उत्पन्न होने वाले अनाज, फल आदि भी छिलके के भीतर अपने मूल तत्त्व के साथ उत्पन्न होते हैं। इसीप्रकार अनादिकाल से यह चैतन्य स्वभावी आत्मा भी भावकर्म, द्रव्यकर्म और नोकर्म की पेकिंग (आवरण) सहित है। वीतरागभावरूप मोक्षमार्ग भी प्रारम्भिक भूमिका में शुभभाव और बाह्य शुभाचरण की पेकिंग सहित होता है। पेकिंग के माध्यम से मूल पदार्थ की पहचान की जाती है, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ की अपनी विशिष्ट पेकिंग होती है। पहचान कराने के साथ-साथ पेकिंग में वह मूल वस्तु सुरक्षित भी रहती है। जब हमें वस्तु का उपभोग करना होता है, तभी उसे हटाया जाता है। यदि उचित समय से पहले पेकिंग हटा दी जाए तो वह वस्तु खराब हुए बिना नहीं रहेगी। पेकिंग का इतना महत्त्व होने पर भी वह स्वयं मूल वस्तु नहीं
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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