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________________ जैनाभास ___ 73 करते हुए आत्मा को सर्वथा ज्ञानरूप ही जानना/कहना, नयाभास है। प्रश्न - यदि आत्मा को ज्ञानमात्र कहना, मिथ्या-एकान्त है तो समयसार टीका के परिशिष्ट में आत्मा को ज्ञानमात्र क्यों कहा गया है? उत्तर - इसी बात का स्पष्टीकरण करते हुए वहाँ कहा गया है कि ज्ञानमात्र कहने से आत्मा के स्वभाव से विरुद्ध रागादि विकारों का तो निषेध समझना चाहिए, परन्तु ज्ञान से अविरुद्ध अन्य अनन्त गुणों या धर्मों का निषेध नहीं समझना चाहिए, लेकिन 'ज्ञान' लक्षण से आत्मा प्रसिद्ध होता है, इसलिए ज्ञान को मुख्य करके आत्मा को ज्ञानमात्र कहना, सम्यक्-एकान्त है, मिथ्या-एकान्त नहीं। यद्यपि जिनागम में 363 मिथ्या एकान्तों (नयाभासों) का उल्लेख मिलता है तथा पंचाध्यायी में भी नयाभासों की चर्चा है, परन्तु यहाँ संक्षेप में तीनों प्रकार के जैनाभासों तथा सम्यक्त्व-सन्मुख मिथ्यादृष्टि के स्वरूप का भी वर्णन किया जा रहा है - 1. जैनाभास, मान्यता का दोष है, आचरण का नहीं । - पण्डित टोडरमलजी ने जैनाभासी मिथ्यादृष्टियों के प्रकरण में इनका उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि ये तीनों आभासं मान्यता या अभिप्राय के दोष हैं, आचरण के नहीं। प्रायः हम विषय-भोगादि अशुभाचरण को निश्चयाभास एवं भक्ति, पूजा, व्रत, शीलादि शुभाचरण को व्यवहाराभास समझ लेते हैं; परन्तु अशुभाचरण तो पाँचवें गुणस्थान तक और शुभाचरण छठवें गुणस्थान तक भी होते हैं; अतः ये शुभाशुभभाव आचरण के ही दोष हैं, श्रद्धान के नहीं। जिनवाणी के आधार से विषय-भोगादि की पुष्टि करना अर्थात् उन्हें उचित ठहराना, निश्चयाभास है तथा व्रतशीलादि में धर्म मानकर, सन्तुष्ट हो जाना, व्यवहाराभास है; अतः यह भूल, श्रद्धा अर्थात् मान्यता मूलक है। कैसी विडम्बना है कि जिस जिनवाणी का अभ्यास मिथ्यात्व के
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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