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________________ नय-रहस्य हेयोपादेय जानना, ज्ञानात्मक निश्चय-व्यवहारनय है। इसप्रकार शुभभावों के सन्दर्भ में भी निश्चय-व्यवहारनय का ग्रहण-त्याग एक साथ होता है। - इसी विषय को आचरण की अपेक्षा विचार किया जाए तो पहले-दूसरे-तीसरे गुणस्थान में मुख्यता की अपेक्षा तारतम्यरूप से अशुभभाव की हीनता, चौथे-पाँचवें-छठवें गुणस्थान में तारतम्यरूप से शुभभाव की अधिकता होती है तथा सातवें गुणस्थान से आगे शुद्धता की अधिकता होती है। इसलिए यह भी कहा जाता है कि पहले अशुभभाव को छोड़कर शुभभावरूपी व्यवहार की नाव में बैठो और उस पार (शुद्धोपयोग में) जाने के बाद शुभभाव स्वयं छूट जायेगा, यदि उसे पहले छोड़ दोगे तो मँझधार में डूब जाओगे अर्थात् शुद्धभाव को तो प्राप्त होगे नहीं, शुभभाव को छोड़कर वापस अशुभ में चले जाओगे। .... उक्त कथन से यह नहीं समझना चाहिए कि शुभभाव करते-करते वीतरागता प्रगट हो जाएगी। यह तो शुभभावों के ग्रहण-त्याग की भूमिका को स्पष्ट करने के लिए कहा गया है। यहाँ उन पर घटित होने वाले व्यवहारनय के ग्रहण-त्याग की बात नहीं है, क्योंकि व्यवहारनय का ग्रहण-त्याग ज्ञान में एक साथ होता है, क्रिया में नहीं। __सम्यग्दर्शन के पहले भी शुभभाव होते हैं तथा उन्हें करने का उपदेश भी दिया जाता है, परन्तु वहाँ सच्चा व्यवहार मोक्षमार्ग भी नहीं है, अतः उस शुभभाव पर मोक्षमार्ग का पूर्वचर व्यवहार (उपचार) घटित होता है। जिनागम में व्रतादिकरूप व्यवहार क्रिया सम्यग्दर्शन के उत्तरचर व्यवहार के रूप में कही गई है। इसप्रकार निश्चय-व्यवहार नयों का यथार्थ स्वरूप समझना श्रेयस्कर है।
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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