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निश्चयनय और व्यवहारनय
अन्यत्र भी व्यवहार को परमार्थ नहीं मानना - यही उसका हेयपना है तथा निश्चयनय के कथन को सत्यार्थ जानना ही उसका उपादेयपना है। निषेध्य अर्थात् हेय तथा प्रतिपाद्य अर्थात् उपादेय। निष्कर्ष के रूप में प्रतिपादक - व्यवहारनय के द्वारा निश्चयनय, प्रतिपादन करने योग्य है, प्रतिपाद्य है, उपादेय है तथा निषेधक - निश्चयनय के द्वारा व्यवहारनय, निषेध करने योग्य है, निषेध्य है, हेय है। ___ इसप्रकार प्रतिपाद्य-प्रतिपादक और निषेध्य-निषेधक के अनुसार ही हेय-उपादेय का स्वरूप जानना चाहिए।
प्रश्न - व्यवहार को कथंचित् हेय और कथंचित् उपादेय कहने का आशय स्पष्ट कीजिए? . उत्तर - व्यवहारनय के विषय का सर्वथा निषेध नहीं करना चाहिए। उसकी सत्ता तो स्वीकार करना ही चाहिए - इस अपेक्षा व्यवहारनय को कथंचित् उपादेय कहा गया है तथा व्यवहारनय के कथनों को उपचार मात्र समझना, परमार्थ नहीं मानना - इस अपेक्षा उसे परमार्थतः हेय कहा जाता है।
प्रश्न - शुभभावों को भी कथंचित् हेय और कथंचित् उपादेय कहा जाता है? क्या यह भी व्यवहारनय के समान हेयोपदेयपना है?
उत्तर - देखिए! शुभभाव, मोक्षमार्ग में निमित्त हैं, अतः पापों से बचने के लिए और वीतरागता का पोषण करने के लिए उन्हें कथंचित् उपादेय भी कहा गया है, परन्तु वे पुण्यबन्ध के ही कारण हैं, अतः उन्हें मोक्षमार्ग में हेय भी कहा गया है। ___ इसप्रकार ज्ञान में शुभभाव के हेय-उपादेयपने का निर्णय, एक साथ वर्तता है, परन्तु उन्हें हेय कहना वचनात्मक निश्चयनय है तथा उपादेय कहना वचनात्मक व्यवहारनय है। इसीप्रकार उन्हें यथार्थतः