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________________ - नय-रहस्य . इन्हीं वाक्य प्रयोगों को निषेध्य-निषेधक की दृष्टि से निम्नानुसार समझना चाहिए - निषेध्य (व्यवहारनय) | निषेधक (निश्चयनय) 1. हमारे विकल्पों या वर्तमान 1. सब जीवों का जीवन-मरण, .. पुरुषार्थ से बाह्य संयोगों में सुख-दुख उनके कर्मोदय के परिवर्तन नहीं होता है। अनुसार होता है। 2. आत्मा जड़ कर्मो का कर्ता-2.आत्मा अपने भावों का ही कर्ता___ भोक्ता है। | भोक्ता है। 3. आत्मा अपने स्वभाव से | 3. आत्मा ज्ञान-दर्शन आदि निर्मल रागादि का कर्ता-भोक्ता है। पर्यायों का कर्ता-भोक्ता है। 4. आत्मा कर्ता है और उसकी 4. आत्मा कर्ता-कर्म के भेद से पर्यायें कर्म हैं - इसप्रकार कर्ता- रहित अभेद वस्तु है। कर्म का भेद करना। . इसप्रकार प्रतिपाद्य-प्रतिपादक और निषेध्य-निषेधक भी ज्ञान में होते हैं, क्रिया में नहीं; क्योंकि नयों का प्रयोजन वस्तु-स्वरूप को समझकर यथार्थ निर्णय करना है और निर्णय ज्ञान में ही होता है, अतः वह ज्ञान की ही क्रिया है, बाह्य-क्रिया नहीं। 7. व्यवहारनय और निश्चयनय की हेयोपादेयता ... समयसार की 11वीं गाथा में व्यवहार को अभूतार्थ कहकर, हेय कहा है तथा निश्चय को भूतार्थ कहकर, उसे आश्रय करने योग्य बताया है। यहाँ निश्चय अर्थात् निश्चयनय का विषयभूत त्रिकाली शुद्धात्मा समझना चाहिए तथा व्यवहार से आशय संयोग, विकार और भेद समझना चाहिए, क्योंकि यह ग्रन्थ, आचार्यदेव ने शुद्धात्मा का स्वरूप बताने के लिए ही लिखा है।
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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