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________________ निश्चयनय और व्यवहारनय देखेंगे तो रागादि का कर्तृत्व व्यवहारनय से कहलाएगा। तात्पर्य यह है कि शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा अशुद्धनिश्चयनय भी व्यवहारनय हो जाता है तथा परमशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा शुद्धनिश्चयनय भी व्यवहारनय हो जाता है। इसीप्रकार अन्यत्र भी हम समझ सकते हैं। उक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जो प्रतिपादन करे - वह व्यवहारनय है और जिसका प्रतिपादन किया जाए - वह निश्चयनय है। अथवा जो निषेध करे, वह निश्चयनय है और जिसका निषेध किया जाए - वह व्यवहारमय है। अब यहाँ निम्नलिखित प्रयोगों द्वारा उक्त कथन का आशय स्पष्ट किया जा रहा है - प्रतिपादक (व्यवहारनय) प्रतिपाद्य (निश्चयनय) 1. जीव घट-पटादि बाह्य- 1. जीव घट-पटादि के लक्ष्य से होने वाले पदार्थों का कर्ता है। | रागादि भावों का कर्ता है। 2. प्रत्येक जीव को अपने 2. जीव कर्मोदय के निमित्त से होनेवाले पूर्वकृत कर्मों का फल | रागादि के अनुसार सुखी-दुःखी होता भोगना पड़ता है। । है। 3. जीव अपने रागादि 3. स्वभाव दृष्टि से आत्मा रागादि का विभाव भावों का कर्ता, कर्ता नहीं है। वह रागादि को जानने वाले अपने ज्ञान का कर्ता है। 4. आत्मा अपनी निर्मल |4. आत्मा में कर्ता-कर्म आदि भेद व्यवहार पर्यायों का कर्ता है। | से किए जाते हैं। आत्मा अखण्ड अभेद एक चैतन्यमात्र वस्तु है। उसकी दृष्टि करने पर स्वाभाविकरूप से निर्मल पर्याय उत्पन्न होती है।
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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