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नय - रहस्य
अभिप्राय हो, तब वह कथन परमार्थ का प्रतिपादक होने से व्यवहारनय का कथन समझना चाहिए, क्योंकि व्यवहारनय का कार्य परमार्थ का प्रतिपादन करना है। (प्रतिपाद्य - प्रतिपादक सम्बन्ध) जब किसी कथन
द्वारा संयोग, संयोगीभाव या भेद का निषेध करने का अभिप्राय हो तो वह कथन निश्चयनय का समझना चाहिए, क्योंकि निश्चयनय का कार्य व्यवहारनय का निषेध करना है। (निषेध्य - निषेधक सम्बन्ध)
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जैसे - आत्मा, अपने रागादि भावों का कर्ता-भोक्ता है - ऐसा कहकर, शरीरादि पर - पदार्थों के कर्तापने का निषेध करना हो अथवा रागादि को आत्मा स्वतन्त्रपने करता है, किसी अन्य का उसमें किंचित् मात्र भी कर्तृत्व नहीं है अथवा रागादि को आत्मा की अशुद्ध पर्याय बताना हो तो यह कथन निश्चयनय का माना जाएगा और जब इसी कथन के द्वारा आत्मा में कर्ता-कर्म के भेद के माध्यम से आत्मा का स्वरूप बताना हो अथवा आत्मा, रागादि सम्बन्धी अपने ज्ञान का कर्ता है यह बताना अभीष्ट हो, तब यह कथन व्यवहारनय का समझना चाहिए। इसीलिए तो कहा है - वक्तुरभिप्रायो नयः अर्थात् वक्ता के अभिप्राय को नय कहते हैं।
A.
व्यवहारनय और निश्चयनय में एक विवक्षा यह भी है कि व्यवहारनय जितना - जितना सूक्ष्म होता जाता है, वह उतना - उतना वह निश्चयनय के करीब आता जाता है, बल्कि निश्चयनय ही बनता जाता है तथा निश्चयनय जितना - जितना स्थूल होता जाता है, वह उतनाउतना व्यवहारनय के करीब आता जाता है, बल्कि व्यवहारनय ही बनता चला जाता है। इस बात को हम उक्त उदाहरणों से भी समझ सकते हैं। जैसे, ‘आत्मा, रागादि का कर्ता - भोक्ता है' - यह कथन जब हम परद्रव्यों के कर्तृत्व- भोक्तृत्व का निषेध कर रहे हों तो निश्चयनय का है और जब इस कथन का हम ज्ञानादि के कर्तृत्व की तुलना में