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________________ ___65 निश्चयनय और व्यवहारनय प्रश्न - निचली भूमिका में व्यवहारनय को ग्रहण करना चाहिए, फिर बाद में उसका त्याग करना चाहिए - ऐसा माने तो क्या हानि है? उत्तर - भाई! ग्रहण करना और उसका त्याग करना तो कथन की विधि-निषेधरूप पद्धतियाँ हैं। व्यवहारनय के विषय की सत्ता को स्वीकार करना अथवा उसके माध्यम से परमार्थभूत वस्तु को समझना - यही व्यवहारनय का ग्रहण है और उसी समय, व्यवहारनय स्वयं परमार्थभूत वस्तु नहीं है - ऐसा जानना ही व्यवहारनय का त्याग है। ज्ञानी के ज्ञान में व्यवहारनय का ग्रहण-त्याग एक साथ वर्तता है, क्योंकि ज्ञानी न तो व्यवहारनय का सर्वथा निषेध करते है और न उसे परमार्थभूत निश्चयनय के समान मानते हैं। प्रश्न - समयसार की 12वीं गाथा में व्यवहारनय को निचली भूमिका में जाना हुआ प्रयोजनवान् कहा है? इस कथन का क्या आशय है? उत्तर - जाना हुआ प्रयोजनवान् का आशय भी यही है कि संयोग और संयोगी भावों की यथार्थ स्थिति समझी जाए; परन्तु उन्हें ही आत्मा का वास्तविक स्वरूप न मान लिया जाए। यदि व्यवहारनय के विषय को समझेंगे ही नहीं तो उसका यथायोग्य ग्रहण-त्याग कैसे करेंगे? अतः व्यवहारनय को जाना हुआ प्रयोजनवान् कहा है। प्रश्न - ऐसा भी देखा जाता है कि जो कथन व्यवहारनय का है, वही कथन निश्चयनय का भी कहा जाता है तो तब प्रतिपाद्य-प्रतिपादक या निषेध्य-निषेधक का निर्णय कैसे करें? जैसे, आत्मा अपने रागादिभावों का कर्ता-भोक्ता है - इस कथन में इसे घटित करके समझाएँ ? उत्तर - यह बहुत अच्छा प्रश्न है। इसके अन्तर को समझने के लिए हमें अपनी प्रज्ञा को सूक्ष्म करने की आवश्यकता है। जब संयोग, संयोगीभाव या भेद के कथन द्वारा असंयोगी तत्त्व को समझने का
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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