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नय-रहस्य सफलता है। जिसप्रकारं पेकिंग (आवरण) अपने में छिपी/रखी वस्तु
को बताती है और सुरक्षित रखती है, परन्तु उस वस्तु को पाने के लिए . पेकिंग को तोड़ना ही पड़ता है; उसीप्रकार व्यवहारनय को परमार्थ न मानकर ही परमार्थ को पाया जा सकता है।
. यदि हम पेकिंग (आवरण) को ही माल (मूल वस्तु) समझ लेंगे या उसकी चमक-दमक में ही सन्तुष्ट हो जाएँगे तो माल को पाने के लिए प्रयत्न ही क्यों करेंगे? इसीप्रकार जो शरीर को ही जीव मानेगा, वह देह से भिन्न आत्मा का अनुभव करने का प्रयत्न ही क्यों और कैसे करेगा?
जरा सोचिए! आत्मा को गुणस्थान-मार्गणास्थानरूप मानतेमानते क्या त्रिकाली चैतन्य स्वभाव में अपनापन किया जा सकता है, अर्थात् शुद्धात्मा की अनुभूति की जा सकती है? - नहीं; इसीप्रकार क्या व्रत-शील-संयमादि को मोक्षमार्ग मानते हुए रागरहित ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा का अनुभव किया जा सकता है? - नहीं; अतः शुद्धात्मा का अनुभव करने के लिए देहादि में एकत्व-बुद्धि तोड़ना ही होगा। यही मिथ्यात्व का निषेध है और यही व्यवहारनय का निषेध भी है, क्योंकि व्यवहारनय जैसा कहता है, वस्तु-स्वरूप वैसा ही मानने पर मिथ्यात्व होता है और व्यवहारनय के कथनों को मात्र प्रयोजनवश किये गये उपचरित कथन समझकर, परमार्थ न मानकर ही शुद्धात्मा की प्राप्ति अर्थात् आत्मानुभूति अथवा निश्चय-मोक्षमार्ग .. प्रगट होता है। ....
वास्तव में हम बाह्य क्रिया-काण्ड को ही व्यवहारनय समझते हैं, इसलिए व्यवहारनय का निषेध सुनकर, हमें व्रतादि छोड़कर, स्वच्छन्द प्रवृत्ति के समर्थन की शंका होने लगती है; परन्तु जब हम यह समझ लेंगे कि व्यवहारनय का ग्रहण-त्याग ज्ञान में ही होता है, क्रिया में नहीं, तब हम निःशंक होकर यथार्थ तत्त्व-निर्णय कर सकेंगे।