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________________ 60 नय-रहस्य 5. व्यवहार और निश्चयनय में निषेध्य-निषेधक सम्बन्ध निश्चयनय निषेधक है और व्यवहारनय निषेध्य है - यह बात समयसार कलश 173 और गाथा 272 आदि अनेक स्थानों पर स्पष्ट कही गई है, परन्तु दोनों नयों का अर्थ करने की यथार्थ पद्धति न जानने से समाज में यह भ्रम व्याप्त हो गया है कि व्यवहार निषेध्य है अर्थात् पूजन-पाठ, व्रत-शील-संयमादिरूप शुभभाव अथवा ये क्रियाएँ छोड़ देना चाहिए। अध्यात्म से अरुचि रखनेवाले लोगों द्वारा भी जान-बूझकर समाज को गुमराह किया जाता है कि ये शुद्धात्मा के गीत गानेवाले लोग, पूजन-पाठ, व्रत-शील-संयमादि छुड़ाकर, खाओ-पियो, मौज करो वाला स्वच्छन्ता पोषक धर्म बता रहे हैं। ... व्यवहारनय अर्थात् उसकी विषय-वस्तु स्वयं परमार्थ नहीं है - ऐसा जानना ही व्यवहारनय का निषेध है। यह बात समझने के लिए । व्यवहारनय की निम्नलिखित तीन विशेषताएँ ध्यान देने योग्य हैं - अ. व्यवहारनय स्वयं परमार्थ नहीं है। ब. व्यवहारनय परमार्थ का प्रतिपादक है। स. व्यवहारनय अन्यत्र (गृहीत मिथ्यात्व तथा पापों में) भटकने से बचाता है। यदि हम मुम्बई जानेवाले मार्ग पर यात्रा कर रहे हैं और रास्ते में एक चौराहे पर बोर्ड पर लिखा है - 'मुम्बई 100 कि.मी.' तो उक्त तीन बातें, उस पर निम्नानुसार घटित होंगी - ... अ. जिस बोर्ड पर मुम्बई लिखा है, वह बोर्ड स्वयं मुम्बई नहीं है। ब. वह मुम्बई की दिशा और दूरी का ज्ञान कराता है। स. उस दिशा में जाने से शेष तीन दिशाओं में भटकना बच जाता है। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा को व्यवहारनय से सम्यग्दर्शन
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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