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निश्चयनय और व्यवहारनय कहा गया है, उसमें भी उक्त तीन बिन्दु निम्नानुसार घटित होंगे -
अ. देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा स्वयं सम्यक्त्व नहीं है। ब. उक्त विकल्पात्मक श्रद्धारूप व्यवहार, शुद्धात्मा की श्रद्धारूप निश्चय सम्यक्त्व का सहचारी होने से निश्चय सम्यक्त्व का
ज्ञान कराता है। स. अन्य कुगुरु-कुदेव की श्रद्धा, मिथ्यात्वपोषक है, अतः हमें सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा उन कुगुरु आदि की श्रद्धा से बचाती है।
6. व्यवहारनय का ग्रहण एवं त्याग करने की प्रक्रिया -
इस सम्बन्ध में पण्डित टोडरमलजी, मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ 251 पर लिखते हैं - - यहाँ प्रश्न है कि यदि ऐसा है तो जिनमार्ग में दोनों नयों का ग्रहण करना कहा है, सो कैसे?
समाधान - जिनमार्ग में कहीं तो निश्चयनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे तो 'सत्यार्थ ऐसे ही है' - ऐसा जानना। तथा कहीं व्यवहारनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे ‘ऐसे हैं नहीं, निमित्तादि की अपेक्षा उपचार किया है' - ऐसा जानना। इसप्रकार जानने का नाम ही दोनों नयों का ग्रहण है तथा दोनों नयों के व्याख्यान को समान सत्यार्थ जानकर, 'ऐसे भी है, ऐसे भी है' - ऐसे भ्रमरूप प्रवर्तन से तो दोनों नयों का ग्रहण करना नहीं कहा है।
व्यवहार का निषेध करने की आड़ में व्रत-शीलादि छोड़ देने के बारे में पण्डित टोडरमलजी लिखते हैं -
यहाँ कोई निर्विचारी पुरुष ऐसा कहे कि तुम व्यवहार को असत्यार्थ-हेय कहते हो तो हम व्रत, शील, संयमादिक व्यवहारकार्य किसलिए करें? - सबको छोड़ देंगे। .... उससे कहते हैं कि कुछ व्रत, शील, संयमादि का नाम व्यवहार