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________________ - नय-रहस्य 56 . . . जीव को भी पाँच इन्द्रियवाले शरीर के संयोग की अपेक्षा पंचेन्द्रियजीव कहते हैं तथा पाँच इन्द्रियमय यह शरीर पौद्गलिक होने पर भी, जीव के संयोग की अपेक्षा उसे जीव कहा जाता है; अतः यह ध्यान रखना आवश्यक है कि कब शरीर के संयोगवाले जीव का कथन है और कब जीव का संयोग होने से शरीर को जीव कहा गया है। समयसार गाथा 27 एवं 46 की टीका में जीव और देह दोनों को अर्थात् उनकी संयोगी पर्याय को व्यवहारनय से एक कहा गया है। स. प्रतिपादन का सन्दर्भ - निश्चय-व्यवहारनय के प्रयोगों में यह जानना भी आवश्यक है कि इस कथन द्वारा स्व-पर की एकता, . अथवा स्व-स्वामी सम्बन्ध की बात कही जा रही है या उनमें कर्ताकर्म, भोक्ता-भोग्य या ज्ञाता-ज्ञेय सम्बन्ध की बात कही जा रही है। मैंने क्रोध किया - इस कथन में आत्मा को क्रोध का कर्ता कहा गया है। मैं क्रोध से दुखी हुआ - इस कथन में आत्मा को क्रोध का भोक्ता कहा गया है। क्रोध परिणाम, स्वयं में निश्चय-व्यवहारनय कुछ नहीं है; परन्तु जब उसका जीव. या पुद्गल के साथ एकत्व, कर्तृत्व या भोक्तृत्व बताया जाए, तब उसमें यथार्थ या उपचरित निरूपण की अपेक्षा निश्चय-व्यवहारनय घटित होंगे। पण्डित टोडरमलजी ने व्रत-शीलसंयम को व्यवहार कहने का निषेध किया है, क्योंकि किसी द्रव्य-भाव को निश्चय और किसी को व्यवहार कहना ठीक नहीं; परन्तु मोक्षमार्ग के प्रसंग में व्रत-शील-संयम को व्यवहारनय से मोक्षमार्ग प्ररूपित किया अर्थात् व्रत-शील-संयम को मोक्षमार्ग कहना, व्यवहारनय है - ऐसा कहा है। द. प्रतिपादन का प्रयोजन - किसी भी अपेक्षा वस्तु का
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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